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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३७

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कर्मयोग
 

दृष्टिकोण का अंतर-मात्र होता है। एक ही लहर के वे उत्थान- पतन हैं, और दोनों से मिलकर एक पूर्ण की रचना होती है। एक पतन की ओर देख निराशावादी हो जाता है, अन्य उत्थान की ओर देख आशावादी होता है। जब लड़का स्कूल जाता है, माता-पिता उसकी देख-रेख करने को होते हैं, तब उसे सब कुछ सुखी दिखाई देता है; उसकी आवश्यकताएँ सरल होती हैं, वह आशावादी होता है। परंतु वृद्ध पुरुष अनुभवी और शांत होते हैं। उनका जोश अब तक ठंडा हो जाता है। इसी भाँति पुरानी जातियाँ अपने साथ अपने जीवन का वार्द्धक्य लिये नवीन जातियों की अपेक्षा आशावाद की ओर कम झुकती हैं। भारतवर्ष में एक कहावत है,-- हजार वर्ष तक नगर और फिर हजार वर्ष तक वन। यह नगर से वन और वन से नगर का परिवर्तन-क्रम सर्वत्र चल रहा है; मनुष्य उसको जिस ओर से देखते हैं, उसी के अनुसार आशा या निराशावादी होते हैं।

इसके बाद हम समता का विचार लेते हैं। ये सुखी संसार के विचार कर्म के महान् प्रेरक रहे हैं। बहुत-से धर्मों में यह विचार विशेष रूप से प्रचारित रहता है कि ईश्वर पृथ्वी पर आकर शासन करेगा और संसार यही रहेगा। जो लोग उसका प्रचार करते हैं, वे अंधविश्वासी होते हैं और वास्तव में अंध- विश्वासी अत्यंत सच्चे हृदय के व्यक्ति होते हैं। इस अंधविश्वास के आकर्षण पर ईसाई धर्म का प्रचार हुआ था, और इसी कारण वह ग्रीक और रोमन-गुलामों को लुभा सका। उन्हें विश्वास हो