पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१३६

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कर्मयोग
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दैहिक दुग्य दूर होने पर मानसिक उत्पन्न हो जाते हैं। यह डांटे (Dante) के नरक की उस कथा के समान है जिसमें कुछ लोभियों को एक पहाड़ पर चढ़ा कर ले जाने के लिये एक स्वर्ण- पिंड दिया गया था। प्रत्येक वार वे उसे ऊपर ढकेलकर ले जाते, वह फिर नीचे ढनँग आता। प्रलयांत में सदा सुखी संसार की कल्पना यशों की कहानियों की भाँति सुख देनेवाली अवश्य है परंतु उसका महत्व इससे अधिक नहीं। तमाम जातियाँ जो इस स्वर्गिक संसार की कल्पना करती हैं, सोचती हैं, सबसे सुन्दर स्थान उसमें उन्हीं को मिलेगा। सुखी संसार की कैसी नि:स्वार्थ कल्पना है!

हम संसार को सुखी नहीं बना सकते, वैसे ही हम उसे दुखी नहीं बना सकते। सुख-दुख की सामूहिक शक्तियाँ इसी अनुपात में रहेंगी। इधर की वस्तु हम कभी उधर कर देते हैं, कभी उधर को इधर, परंतु बात वही होती है क्योंकि वैसा होना स्वाभाविक है। यह उत्थान-पतन, यह ज्वार-भाटा संसार का प्राकृतिक नियम है। इससे अन्यथा होगा, यह कहना उतना ही तर्कसंगत हो सकता है जितना कि मृत्यु के बिना जीवन की कल्पना करना। यह सब आदि से लेकर अंत तक सिवा वज्र मूर्खता के कुछ नहीं। जीवन के विचार से ही मृत्यु की हठात् कल्पना होती है, सुख के विचार से दुख की। दीपक प्रतिपल जला करता है, वही उसका जीवन है। यदि तुम जीना चाहते हो, तो तुम्हें प्रतिक्षण मरना पड़ेगा। जीवन और मृत्यु एक ही वस्तु के विभिन्न रूप हैं, .