पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कामयोग
१७
 

उतना ही अधिक भाग्यशाली समझा जाता है। अन्य प्रायश्चित्त के लिये शुभ-कर्म करते हैं। हर तरह के वे पाप करते हैं; बाद को एक मन्दिर बनवाकर या पण्डितों को कुछ घूस देकर स्वर्ग के लिये परवाना पा लेते हैं। वे समझते हैं कि इस उदारता से उनकी कालिमा धुल जायगी और पापी होते हुये भी वे साफ बच जायँगे। कर्म के लिये प्रेरित करनेवाली इस प्रकार की कुछ इच्छाएँ होती हैं।

कर्म कर्म के लिये। प्रत्येक देश में इस प्रकार के कुछ नर-रूप देवता होते हैं जो कर्म कर्म के लिये करते हैं, जिन्हें न यश की, न धन की, न स्वर्ग की ही अभिलाषा होती है। वे कर्म करते हैं, केवल इसलिये कि उसका परिणाम शुभ होगा। अन्य जो ग़रीबों को भलाई और मनुष्य-जाति का हित करते हैं, और भी उच्च विचारवाले होते हैं; अच्छे कर्म करना अच्छा है और इसलिये जो कुछ भी अच्छा होता है, वे उसे प्यार करते हैं। अब उसी इच्छाओं के विषय पर आते हैं; धन और यश की इच्छाओं का शायद ही कभी तुरंत फल मिलता हो। धन और यश प्रायः हमें तब प्राप्त होते हैं जब हम वृद्ध हो आते हैं और जीवन से विदा लेने का समय आ जाता है। यदि जीवन भर मैं नाम के लिये काम करूँ तो अन्त में कहीं जाकर मुझे थोड़ा-सा नाम मिलेगा; यदि कीर्ति के लिये, तो अन्त में थोड़ी-सी कीर्ति मिलेगी। इसी भाँति किसी भौतिक पदार्थ की यदि आकांक्षा हो, तो अन्त में वह मुझे मिल जाती है और वहीं क्रम रुक जाता है।