यद्यपि यह संसार यों ही चलता रहेगा, हमारा ध्येय स्वतंत्रता है;
हमारा लक्ष्य पूर्ण आत्म-त्याग है। कर्मयोग के अनुसार कर्म
द्वारा हम वहाँ तक पहुँच सकते हैं। अंधविश्वासियों के लिये
संसार को सुखी बनाने के विचार कर्म-प्रेरगायों के रूप में भले
हो सकते हैं; परंतु हमें स्मरण रखना चाहिये, अंधविश्वास से
उतनी ही हानि होती है जितना लाभ। कर्मयोगी पूछता है,
स्वभावजन्य मुक्ति की अभिलाषा के अतिरिक्त कर्म करने के लिये
तुम्हें अन्य इच्छाओं की आवश्यकता क्यों हो? साधारण
सांसारिक इच्छाओं के परे हो। “कर्म करने का तुम्हारा अधिकार
है, फल पाने का नहीं।" कर्मयोगी कहता है, मनुष्य अपने
आपको उसे जानने और उसका अभ्यास करने के योग्य बना
सकता है। जब शुभ कर्म करने का विचार उसके व्यक्तित्व का
एक भाग बन जायगा, तो वह कर्म करने के लिये किसी अन्य
बाह्य प्रेरणा को न खोजेगा। हमें शुभ कर्म करने चाहिये क्योंकि
वैसा करना शुभ है। जो स्वर्ग पाने के लिये भी कर्म करता है,
कर्मयोगी कहता है, वह बंधन में पड़ता है। कोई भी कर्म जो
क्षुद्रातिशुद्र स्वार्थभावना से प्रेरित हो किया जाता है, हमें स्वतंत्र
बनाने के स्थान में हमारे पैरों में एक लौह-शृङ्खला और डाल
देता है।
इसलिये यही एक मार्ग है कि कर्म-फल की आशा त्यागकर अनासक्त बनो। जानो कि न सचमुच यह संसार तुम है--न तुम संसार हो, कि हम यह शरीर नहीं, कि वास्तव में हम कर्म नहीं