करते। हम अजर अमर सदा शान्ति लाभ किये आत्मा हैं। हम किसी वस्तु के बंधन में क्यों पड़ें? हमें रोना न चाहिये। आत्मा के लिये हँसना-रोना क्या? सहानुभूति से भरकर भी हमें आँसू न बहाने चाहियें। हमें वैसा करना प्रिय होता है, अपने मन में हम सोचते हैं कि ईश्वर भी अपने सिंहासन पर बैठा वैसे ही रो रहा होगा। ऐसा ईश्वर प्रयत्न कर पाये जाने के योग्य न होगा। ईश्वर क्यों रोये? रोना निर्बलता, परतंत्रता का चिन्ह है। यह कहना बहुत भला लगता है कि हमें अनासक्त होना चाहिये, परंतु कैसे? प्रत्येक कर्म जो बिना स्वार्थ-भावना के किया जाता है, वंधन गढ़ने के स्थान में पुराने बंधनों की एक लड़ी को तोड़ देता है। प्रत्येक शुभ विचार जो हम संसार में भेजते हैं, बिना किसी प्रत्याशा के, वह वहाँ संचित होगा और पुराने बंधनों की एक कड़ी तोड़ देगा, हमें अधिक-से-अधिक पवित्र बनायेगा, यहाँ तक कि मानवों में हम सबसे पवित्र हो जायँगे। परंतु यह सब कुछ दार्शनिक और कल्पित-सा दिखाई दे सकता है, जो सिद्धान्त-रूप में सत्य हो परंतु कार्यरूप में न लाया जा सके। मैंने भगवद्गीता के विरुद्ध अनेक तर्क पढ़े हैं और उनमें से अनेकों के अनुसार बिना इच्छा के कर्म नहीं किया जा सकता। उन्होंने कट्टरता और अंध-विश्वास से प्रेरित निःस्वार्थ कर्म देखा है, अन्य प्रकार से नहीं; इसी कारण वे ऐसा कहते हैं।
अंत में कुछ शब्द मैं आपसे एक ऐसे पुरुष के विषय में कह