पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/२५

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कर्मयोग
 

हमें पहले यह जान लेना चाहिये कि हममें प्रतिकार की शक्ति भी है या नहीं! यदि शक्ति रहते हुये हम उसे जाने देते हैं और पाप का प्रतिकार नहीं करते तो हम प्रेम का एक आदर्श कार्य करते हैं; परंतु यदि हममें प्रतिकार की शक्ति नहीं, फिर भी अपने को यह कहकर धोखा देते हैं कि हम अहिंसा का पालन करते हैं, तो यह उसके बिल्कुल विपरीत होगा। इस प्रकार शत्रुओं की अक्षौहिणी देखकर अर्जुन कायर हो गया था; अहिंसा के आदर्श ने उसे उसके देश व सम्राट् के प्रति कर्तव्य का विस्मरण करा दिया था। इसीलिये श्रीकृष्ण ने उसे प्रपंची कहा था--"तू पण्डितों की तरह वातें करता है परन्तु तेरे आचार कहते हैं कि तू कायर है, इसलिये उठ और युद्ध कर।"

कर्मयोग का यह मूल विचार है। कर्मयोगी वह है जो जानता है कि मनुष्य का उच्चतम आदर्श अहिंसा है, यह भी कि अपनी वास्तविक शक्ति का यह श्रेष्ठ निदर्शन है तथा पाप का प्रतिकार अहिंसा के शिखर तक पहुँचने के मार्ग की एक सीढ़ी मात्र है। इस आदर्श तक पहुँचने के पहले मनुष्य का कर्तव्य है कि वह पाप का प्रतिकार करे, काम करे, युद्ध करे, अपनी पूर्ण शक्ति से प्रहार करे; तभी जब उसमें प्रतिकार की पूर्ण शक्ति हो जायगी, अहिंसा उसका गुण होगा।

अपने देश में मुझे एक बार एक आदमी मिला जिसे मैं पहले से जानता था कि वह एकदम बेवकूफ़ है, न कुछ जानता है न जानने की इच्छा रखता है; वह एक पशु का जीवन बिता