को सदा और सब भाँति उन्हें प्रसन्न रखना चाहिये। यदि माता- पिता उससे प्रसन्न हैं, तो ईश्वर भी उससे प्रसन्न है। वही पूत- सपूत है जो माता-पिता को कभी आधी बात तक नहीं कहता।
"माता-पिता के आगे हँसी-दिल्लगी, किसी तरह का दंगा न करना चाहिये, न क्रोध करना चाहिये। उन्हें झुककर प्रणाम करना चाहिये; जब वे आवे तो उठकर खड़े हो जाना चाहिये और जब तक वे न कहें तब तक बैठना न चाहिये।
"यदि गृहस्थ बिन माता-पिता, पुत्र-पुत्री, स्त्री तथा दीन- दुखियों की खबर लिये अपने-आप खाये-पिये और मौज उड़ाये, तो पापी है। माता-पिता ने उसे जन्म दिया है, इसलिये उनकी भलाई के लिये उसे सहस्र कष्ट भी सहने चाहिये।
"इसी भाँति उसके उसकी स्त्री के प्रति कर्तव्य हैं; किसी पुरुष को अपनो स्त्री को डाटना-फटकारना न चाहिये और उसका सदा इस भाँति भरण-पोषण करना चाहिये जैसे वह उसकी माँ हो। घोर-से-घोर आपदाओं-बाधाओं का सामना करते हुये भी उसे उसपर क्रोध न करना चाहिये।
"मनुष्य को न यही कहना चाहिये कि वह गरीब है न अपने धन की डींग हाँकनी चाहिये। उसका कर्तव्य है कि इनके विचार वह अपने तक ही रक्खे।" यह साधारण दुनियादारी की बातें नहीं; यदि कोई ऐसा न करे तो लोग उसे अधर्मी समझेंगे।
गृहस्थ सामाजिक जीवन की नींव, उसका प्रधान आधार है। जीविका वही उपार्जन करता है। ग़रीब, निर्बल, बच्चे, स्त्रियाँ,