जो भी काम नहीं कर सकते, उसी का मुँह देखते हैं। इसलिये उसके कुछ कर्तव्य होने चाहिये, और उन्हें पालन करने के लिये उसे साहस होना चाहिये; वह यह न सोचे कि अपने आदर्श के नीचे वह कोई काम कर रहा है। इसलिये यदि उसने कोई छोटी बात या भूल को है, तो उसे सबके सामने उसे न कहना चाहिये। यदि किसी व्यापार में उसे विश्वास है, उसे घाटा होगा, उसे वह भी न कहना चाहिये। इन बातों का प्रकाशन अनावश्यक ही नहीं, वह मनुष्य की स्वात्म-निर्भरता कम कर देता है तथा उसे उसके उचित कर्तव्यों का समुचित पालन करने योग्य नहीं रखता। साथ ही उसे इन दो वस्तुओं की प्राप्ति के लिये घोर परिश्रम करना चाहिये,--पहली ज्ञान, दूसरी धन। यह उसका धर्म है, और यदि वह अपने धर्म का पालन नहीं करता, तो वह कुछ नहीं। गृहस्थ जो धनोपार्जन में प्रयत्नपर नहीं, अधर्मी है। यदि वह सुस्त है और आलसी जीवन बिताने में तनिक भी संकोच नहीं करता, तो वह पापी है, क्योंकि उसपर और सैकड़ों निर्भर हैं। यदि वह धनोपार्जन करेगा तो उससे वे सैकड़ों पलेंगे।
यदि इस नगर में सैकड़ों नागरिकों ने सम्पत्तिशाली बनने की चेष्टा न की होती, तो यह सभ्यता, ये इमारतें, ये खैरात के बड़े-बड़े घर कहाँ होते?
ऐसी स्थितियों में धनोपार्जन बुरा नहीं, क्योंकि धन बाँटने के लिये इकट्ठा किया जाता है। सामाजिक जीवन का गृहस्थ केंद्र है। धन का श्रेष्ठ उपार्जन और व्यय उसकी पूजा और उपासना है,