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कर्मयोग
 

सकता। जब तक मनुष्य का चरित्र न बदलेगा, दैहिक आवश्य- कताओं का कहीं अन्त न होगा। दुख बढ़ता रहेगा और कितने भी दैहिक उपकार से उसकी शांति न होगी। इस बुराई के अन्त करने का एक ही ढंग है, यह कि संसार पवित्र बनाया जाय। अज्ञान ही तमाम बुराई और दुखों को, जिन्हें हम देखते हैं जनता है । मनुष्य को प्रकाश मिले, वह अध्यात्म वीर हों! यदि हम ऐसा कर सकें, यदि सारी मनुष्य जाति को पवित्र शिक्षित और अध्यात्म-शक्ति-सम्पन्न बना सकें, तो समस्त दुखों का अन्त हो सकता है, उसके पूर्व नहीं। देश के प्रत्येक गृह को हम चाहे दानशाला बना दें, उसे औषधालयों से भर दें, किन्तु जब तक मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन न होगा तब तक उसके दुखों का भी अन्त न होगा।

भगवद्गीता में हम बार-बार पढ़ते हैं कि हमें अविराम कर्म करना चाहिये और सभी कर्म स्वभावतः पाप और पुण्य का मिश्रण हैं। हम ऐसा कोई काम नहीं करते जिसके किसी अंश में अच्छाई न हो। ऐसा भी कोई काम नहीं जिसमें कहीं-न-कहीं किसी को हानि पहुँचाने की सम्भावना छिपी न हो। जो भी काम किया जाता है, उसमें अच्छाई बुराई होती है। फिर भी हमें अविराम काम करने के लिये कहा गया है। पाप-पुण्य दोनों का फल मिलेगा, दोनों का कर्म उत्पन्न होगा। पुण्य का फल शुभ होगा, पाप का अशुभ। शुभ और अशुभ दोनों ही आत्मा के बंधन हैं। गीता ने कर्म की इस बंधन जनन प्रकृति के सम्बन्ध में