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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/४२

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कर्मयोग
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वास्तव में अध्यात्म-ज्ञान ही जीवन के तमाम कर्मों की नींव है। अध्यात्म-शक्तिवाला पुरुष चाहे तो वह किसी प्रकार की शक्ति अर्जित कर सकता है। जब तक मनुष्य में अध्यात्म-शक्ति न होगी तब तक दैहिक आवश्कताओं की भी भली भाँति पूर्ति नहीं हो सकती। आध्यात्मिक उपकार के बाद मानसिक उपकार का नम्बर आता है। ज्ञान-दान वन किंवा भोजन-दान से बढ़कर है। मनुष्य को जीवन-दान देने से भी यह श्रेष्ठ है, क्योंकि मनुष्य के वास्तविक जीवन का अर्थ है, सदज्ञानार्जन। अज्ञान मृत्यु है, ज्ञान जीवन। दुख और अज्ञान में पथ भ्रष्ट जीवन का कोई मूल्य नहीं। इसके बाद कहीं दैहिक उपकार का नम्बर आता है। इसलिये परोपकार पर विचार करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि किसी मनुष्य का हम दैहिक उपकार मात्र नहीं कर सकते। दैहिक उपकार अन्तिम और लघुतम महत्ता का उपकार है, क्योंकि उससे आवश्कताओं की कोई चिरंतन पूर्ति नहीं होती। भूख लगने पर जो क्लेश होता है वह भोजन के पश्चात् नहीं होता; किन्तु भूख फिर भी लगती है। दुखों का तभी अन्त हो सकता है जब ऐसा संतोप हो कि फिर किसी बात की आवश्यकता पड़े ही नहीं। तब भूख से हमें क्लेश न होगा। कोई दुख, कोई वाधा, कोई वेदना हमें न हिला सकेगी। जिस उपकार से हमें अध्यात्म-शक्ति मिलती है, निश्चय ही वह महत्तम उपकार है; उसके पश्चात् मानसिक और दैहिक उपकार आते हैं।

केवल दैहिक उपकार से संसार के दुखों का अन्त नहीं हो