सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
५९
 


दया और उदारता के भाव अब धीरे-धीरे भारतवर्ष से बाहर जा रहे हैं। महान् पुरुप कम-से-कम संख्या में हो रहे हैं। जब मैंने पहले पहल अँगरेजो पढ़ना शुरू किया था तब मैंने अँगरेजी की एक कहानियों को पुस्तक पढ़ो, जिसकी पहली कहानी एक लड़के के बारे में थी जिसने अपने कर्त्तव्य का पालन किया था। वह बाहर काम करने गया था; जो कमाकर लाया था, उसमें से कुछ उसने अपनी वृद्धा माँ को भी दे दिया था। इसी बात को लेकर उसको तीन-चार पृष्ठों में प्रशंसा की गई थी। परंतु वह कितना बड़ा काम था? कोई हिंदू-चालक उस कहानी से कोई बड़ी कर्तव्य- शिक्षा न पा सकता। अब मैं उसे समझता हूँ जब मैं पाश्चात्य विचार सुनता हूँ - प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये, कुछ पुरुष सब कुछ अपने लिये करते हैं; माता-पिता, स्त्री-बच्चे सड़क की हवा खाते हैं। गृही का कहीं भी और कभी भी यह आदर्श न होना चाहिये।

कर्म-योग का अर्थ अब समझ में आ गया होगा; मरते हुये भी बिना सवाल-जवाब के दूसरों की सहायता करना। सैकड़ों बार धोखा खाकर भी चूँ तक न करना। हम क्या कर रहे हैं, न इसका विचार करना। दोन-दुखियों को दान देकर कभी अपनी डींग न हाँको, न उनकी कृतज्ञता की आशा रक्खो; प्रत्युत उनके उपकृत हो कि उन्होंने तुम्हें अपनी दया को चरितार्थ करने का एक अवसर दिया। इस प्रकार यह सिद्ध है कि आदर्श संन्यासी होने से आदर्श गृही होना कहीं कठिन है । सच्चे सन्यासी से यदि सच्चे कर्म का जीवन अधिक कठिन नहीं तो उतना ही कठिन अवश्य है।