पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/५५

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कर्मयोग
 

'स्वागत है; भीतर पधारिये।' उसने अतिथि के सामने अपने भोजन का भाग रख दिया; उसे वह तुरन्त खाकर बोला,-- "ओह, तुमने तो मुझे मार डाला। मैं दस दिन से भूखा हूँ और इस थोड़े-से भोजन से मेरी भूख और भी प्रवल हो उठी है।' तब ब्राह्मणी ने अपने पति से कहा,-- 'उन्हें मेरा भाग दे दो।' ब्राह्मण ने नाहीं नूही की परन्तु ब्राह्मणी ने कहा,-- 'हमारे घर एक भूखा अतिथि आया है; गृहस्थों की भाँति हमारा धर्म है कि हम उसे भोजन दे सन्तुष्ट करें। तुम अपना भाग दे चुके हो, अतः स्त्री की भाँति मेरा धर्म है कि मैं उसे अपना भाग दूं।' तब उसने अपना भाग भी अतिथि के सामने रख दिया, किन्तु उसे भी 'खाकर उसकी क्षधा शान्त न हुई। तब लड़के ने कहा, भोजन का भाग भी दे दीजिये। पुत्र का धर्म है कि पिता के कर्तव्य पालन में उसकी सहायता करे।' पथिक उसे खा गया, परन्तु अव भी भूखा रहा। पस पुत्रवधू ने भी उसे अपना भाग दे दिया। इतने से पूरा पड़ गया और अतिथि सन्तुष्ट हो उन्हें आशीश देता हुआ बिदा हुआ। उस रात वे चारों प्राणी भूख से मर गये। उस भोजन के कुछ अन्न-कण जमीन पर गिर पड़े थे, और मैं जब उन पर लेटा तो मेरा आधा शरीर सोने का हो गया। उसी दिन से मैं सारी दुनिया घूमता फिरता हूँ कि कहीं वैसा ही दूसरा यज्ञ देखने को मिले, परन्तु मेरी आशा पूरी नहीं हुई। कहीं भी लोटने से मेरे शरीर का दूसरा भाग सोने का न हुआ। इसलिये मैं कहता हूँ, यह कोई यज्ञ नहीं।".