पहला अध्याय
कर्म का चरित्र पर प्रभाव
कर्म शब्द संस्कृत की "कृ=करना" धातु से बना है। जो कुछ भी किया जाता है, कर्म है। कर्मों का फल भी इसका प्रयुक्त अर्थ होता है। दर्शन-शास्त्र में इसका अर्थ कभी-कभी उस परिणाम से होता है जिसके कि हमारे पूर्वकर्म कारण हैं। परंतु कर्म-योग में हमें उसी कर्म से वास्ता है जिसका अर्थ काम है। सत्य का ज्ञान मनुष्य-जाति का उचित ध्येय है, इसी आदर्श को प्राच्य दर्शन हमारे सामने रखते हैं। मनुष्य का ध्येय सुख नहीं, ज्ञान है। सांसारिक सुख और आनन्द का अंत हो जाता है। मनुष्य की यह भूल है जो वह समझता है कि ध्येय सुख है; संसार की सभी विपत्तियों की जड़ यह अंध-विश्वास है कि सुख ही वह आदर्श है जिसे पाने के लिये प्रयत्नपर रहना चाहिये! कालान्तर में मनुष्य जानता है कि वह सुख की ओर नहीं, ज्ञान की ओर बढ़ रहा है; सुख और दुख दोनों शिक्षक हैं और वह उनसे शिक्षा लेना सीखता है। सुख और दुख उसकी आत्मा के सामने से गुजरते हुए उसपर अपनी छाया छोड़ जाते हैं। इन भाव-चित्रों के सामूहिक परिणाम का ही नाम मनुष्य का "चरित्र" है। किसी का