पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/७

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कर्मयोग
 


भी चरित्र लीजिये; वह उसकी भावनाओं, उसकी मानसिक प्रवृत्तियों की समष्टि है। उस चरित्र के निर्माण में सुख और दुख का समान भाग है। सुख और दुख समान रूप से चरित्र निर्मित करते हैं और कहीं-कहीं दुख सुख से अधिक शिक्षा देता है। संसार के बड़े-बड़े चरित्रों का अध्ययन करने पर यह देखा जा सकता है कि दुख ने सुख से अधिक शिक्षा दी; धन से अधिक निर्धनता ने उन्हें महत्ता का पाठ पढ़ाया; प्रशंसा से नहीं, प्रहार सहकर उनको अन्तर्योति का स्फुरण हुआ।

यह ज्ञान भी मनुष्य में ही है; ज्ञान कभी बाहर से नहीं आता; वह सब भीतर है। जो कुछ मनुष्य "जानता" है, वह मनोवैज्ञानिक शब्दावली में ठीक-ठीक "खोज निकालता" है अथवा "निरावृत करता" है, होना चाहिये। आत्मा अनंत ज्ञान की खान है; जो कुछ मनुष्य "जानता" है, वह वास्तव में उसी पर का एक पर्दा हटने पर उसकी "खोज" होती है। हम लोग कहते हैं, न्यूटन ने आकर्षण-शक्ति को ढूँढ़ निकाला। क्या आक- र्षण-शक्ति किसी कोने में बैठी उसका रास्ता देख रही थी? वह उसीके मस्तिष्क में थी, समय आया तब उसे उसका ज्ञान हुआ। संसार को जितना भी ज्ञान मिला है, इसी मस्तिष्क से। तुम्हारा मस्तिष्क ही विश्व का असीम, अछोर पुस्तकालय है। वाह्य संसार एक प्रतीक, एक संकेत-मात्र है, जो तुम्हें अपने आपको जानने के लिये इंगित करता है परंतु अपने अध्ययन के विषय तुम स्वयं हो। सेब के गिरने से न्यूटन को एक संकेत मिला और उसने