पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/६०

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कर्मयोग
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णायें अधिकतर बँधती हैं। इसलिये हमारा धर्म है कि जिस समाज में हम उत्पन्न हुए हैं, उसीके आदर्श और कर्मों का ध्यान . रखते हुए, जिनसे हम उन्नत हो सके, काम करें। परन्तु इस बात .का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सभी समाजों के एक-से आदर्श. और कर्म नहीं होते। यही भली भाँति न समझ सकने के कारण, जातियों में पारस्परिक विरोध-भाव बढ़ता है। एक अमरीका-. निवासी समझता है कि अपने देश की प्रथाओं के अनुसार वह जो कुछ करता है, वहां श्रेष्ठ कर्त्तव्य है; जो उनका पालन नहीं करता, वह अवश्य ही असभ्य होगा। हिन्दू सोचता है कि उसके रीति-रिवाज, सबसे उचित और श्रेयस्कर हैं। उन्हें जो नहीं मानता वह अवश्य ही बहुत असभ्य होगा। यह एक स्वाभाविक भूल है जो सभीसे बहुत आसानी से हो जाती है। परन्तु यह बड़ी खतरनाक भूल. है, संसार के आधे से अधिक दुखों की यही एक कारण है। जब मैं देश में आया था और शिकागो का मेला देख रहा था तब एक आदमी मेरे पीछे आया और उसने बड़े जोर से मेरो पगड़ी. खींच ली। मैंने घूमकर देखा तो वह सभ्य सा भली पोशाक पहने दिखाई दिया। मैंने उससे अँगरेजी में बातचीत की; वैसा करने, पर वह अत्यंत लजित हुआ, अवश्य ही इसलिये कि वह यह न. सोच सकता था कि मैं अँगरेजी भी बोल सकता था। उसी मेले में. अन्य अवसर पर एक मनुष्य ने मुझे धक्का दिया। जब मैंने उससे उसका कारण पूछा, तो वह भी खिसिया गया और अन्त में किसी. तरह क्षमा याचना करता .बोला,--"आप ऐसे कपड़े क्यों पहने