पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/६२

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कर्मयोग
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है; किसी समय में जो हमारा कर्तव्य है, उसे सबसे अच्छी तरह करना, यही संसार में हम सबसे अच्छी बात कर सकते है। जन्म के अनुसार जो हमारा कर्त्तव्य है, उसे हमें करना चाहिए; वैसा कर चुकने पर समाज और जीवन में हमारी निश्चित श्रेणी के अनुसार हमें अपना कर्त्तव्य करना चाहिए। जीवन में मनुष्य का कोई-न-कोई स्थान होता ही है। उसे उसके अनुरूप कर्तव्य का पालन करना चाहिए। मानव प्रकृति में किन्तु एक भयावह बात यह है कि मनुष्य अपनी ओर स्वच्छ दृष्टि से देखता नहीं। वह समझता है, सिंहासन पर बैठकर वह वैसे ही शासन कर सकता है। वह वैसा कर भी सके, तो उसे पहले यह दिखा देना होगा कि उसने अपने व्यक्तिगत कर्तव्यों का पालन किया है। वैसा कर चुकने पर उसके सामने महत्ता कर्त्तव्य उपस्थित होंगे। संसार को मनुष्य पहले यह दिखा दे कि जो छोटा काम उसे मिला है, उसे समुचित ढंग से कर सकने की सामर्थ उसमें है; वैसा करने पर उसके सामने और बड़े काम आवेंगे। संसार में जब हम जी लगाकर कर्म करना प्रारंभ करते हैं, तो दायें-बायें प्रकृति की मारें हमारे ऊपर पड़ती हैं और हम शी ही जान जाते हैं, हमारा कर्म-क्षेत्र कौन-सा है। असमर्थ व्यक्ति एक पद पर बहुत देर तक नहीं टिक सकता। प्रकृति के श्रेणी-विभाजन के प्रति रोना-कलपना व्यर्थ है। जो छोटा काम करता है, वह उस कारण छोटा आदमी नहीं, किसी के कर्त्तव्य को देखकर उसकी बड़ाई-छुटाई का अंदाजा न लगाना