पाँचवाँ अध्याय
हम अपना उपकार करते हैं, न कि संसार का।
कर्म की उपासना द्वारा आध्यात्मिक उन्नति पर अधिक कुछ कहने के पूर्व मैं संक्षेप में कर्म की एक अन्य व्याख्या कर दूँ जिसे हम भारतवर्ष में कर्म-शब्द के अंतर्गत मानते हैं। प्रत्येक धर्म के तीन भाग होते हैं ; पहला दर्शन, दूसरा पुराण और तीसरा उपासना। दर्शन तो प्रत्येक धर्म का तत्त्व होता है । पुराण पूर्व महापुरुषों के चरित्र, कहानियों, और झूठी-सच्ची अनेक विचित्र कथाओं द्वारा उस दर्शन को व्यक्त करती हैं, उसकी व्याख्या कर लोगों को बोधगम्य बनाती हैं। उपासना उस दर्शन को एक और भी स्थूल रूप देती है जिससे कि जन साधारण के उसे समझने में कठिनता न पड़े। उपासना वास्तव में दर्शन का स्थूल रूप है। यह उपासना कर्म है; प्रत्येक धर्म में उसकी दरकार रहती है, कारण कि हममें से बहुत- से सूक्ष्म आध्यात्मिक बातें नहीं समझ पाते जब तक कि उनकी उस ओर अधिक उन्नति न हो । मनुष्य के लिये यह सोचना सरल है कि वह सब कुछ समझ सकता है परंतु वास्तविक अभ्यास का सामना होने पर वह जानता है, बहुत-सी बातें