पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१००
कर्मयोग
 

बुराई करते हैं। उससे उन्हें कुछ मिलता नहीं, परन्तु ऐसा करना उनका स्वभाव है । अपने कवि के अनुसार अत: यह स्पष्ट है कि जो स्वार्थ का ध्यान न रख दूसरों का उपकार करता है, जो आत्म-त्याग की सर्वोच्च दशा को पहुँच गया है, वही वास्तव में श्रेष्ठ पुरुष है।

मैं आपके सामने दो संस्कृत के शब्द रखता हूँ, प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति का अर्थ है किसी की ओर जाना, निवृत्ति का उससे दूर होना। प्रवृत्ति ही यह मैं, तुम का संसार है। उसके अन्तर्गत धन, शक्ति, यश आदि वस्तुएँ हैं जो "मैं" में केंद्रीभूत हो उसे जकड़ लेती हैं। प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है; सब तरफ से सब चीजें घसीटकर वह अपने उन्हें प्रिय "अहं" के पास जमा करता है । जब यह वृत्ति टूटने लगती है तथा निवृत्ति का, वस्तुओं से दूर हटना आरम्भ होता है तभी धर्म और आचार का भी प्रारम्भ होता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति कर्म में स्वभाव-जन्य हैं, प्रवृत्ति अशुभ तथा निवृत्ति शुभ है। धर्म और आचार की मूलाधार यही निवृत्ति है ; उसकी पूर्णता पूर्ण आत्म-त्याग, परोप- कार के लिये जीवन तक देने की तत्परता है। जब मनुष्य उस दशा को पहुँच जाता है तब वह कर्म-योग का आदर्श पा जाता है। शुभ कर्मों का यह सर्वोत्कृष्ट फल है । मनुष्य ने एक भी दर्शन-ग्रन्थ खोलकर न देखा हो, ईश्वर में उसे न आज विश्वास हो न पहले कभी रहा हो, जीवन में एक बार भी ईश्वर की उपासना करने वह न बैठा हो, परन्तु शुभ-कर्मों के प्रताप से ,