ज्ञान का यह मिलन - केंद्र है। पुराने ऋषियों की उक्तियों का यही अर्थ था जब उन्होंने कहा था, ईश्वर यह संसार नहीं । संसार अन्य वस्तु है, ईश्वर अन्य ; यह विभेद सच्चा है, संसार से उनका अर्थ स्वार्थ से था। स्वार्थ-हीनता ईश्वर है। स्वर्ण-सिंहा- सन पर बैठा हुआ सम्राट् गगन-चुम्बी प्रासादों की माया में आवृत्त भी त्यागी हो ईश्वर में लीन हो सकता है। अन्य पुरुप चाहे बन की कंदरा में लँगोटी लगाकर रहे, किंतु यदि वह स्वार्थी है, तो माया के बंधनों में जकड़ा हुआ है।
अपने मुख्य प्रश्नों में से एक पर फिर लौटकर हम कह सकते हैं कि बिना अशुभ के हम शुभ कर्म नहीं कर सकते, न बिना शुभ के अशुभ । यह जानते हुये हम कैसे कर्म कर सकते हैं ? इसी कारण संसार में कुछ ऐसे संप्रदाय हुए हैं जिन्होंने आश्चर्य-जनक तर्क-प्रणाली का अनुसरण करते हुये संसार से छुटकारा पाने का केवल एक मार्ग बताया है-धीरे-धीरे आत्म- घात ! यदि मनुष्य जियेगा तो पशु, पौधों अथवा अन्य किसी की उसके द्वारा हिंसा होगी ही ; इसलिये उनके अनुसार मुक्ति केवल अपने प्राण देने से ही हो सकती है। जैनियों ने इस सिद्धांत को आदर्श मान उसका प्रचार किया है। बात तर्क-संगत लगती है, परंतु समस्या का ठीक उत्तर गीता में है,-अनासक्ति, कर्म करते समय फल में निलिंप्ति । यह जानना कि तुम संसार से परे हो; संसार में रहते हुए भी कर्म करना परंतु अपने लिये कुछ न करना। अपने लिये तुम जो कर्म भी करोगे, उसका फल