पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१००

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कर्मयोग
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तुम्हें भोगना पड़ेगा। शुभ कर्म होगा तो शुभ, अशुभ होगा तो अशुभ । परंतु अपने लिये न किया हुआ कोई भी कर्म तुम पर शुभ या अशुभ प्रभाव न डाल सकेगा। इसी विचार को लिये हुये हमारे शास्त्रों का एक अत्यंत सार-गर्भित वाक्य है:-"चाहे वह संसार का नाश कर दे, (चाहे वह स्वयं नष्ट हो जाय), परंतु यदि वह जानता है कि वह अपने लिये कुछ नहीं करता, तो वह न नाश करता है न नष्ट होता है। इसलिये कर्मयोग कहता है-"संसार छोड़ मत भागो; संसार में रहो और यथा- संभव उससे प्रभावित हो; परंतु अपने सुख के लिये कोई कर्म न करो।" तुम्हारा ध्येय सुख न होना चाहिये । पहले "अहं" का नाश करो, फिर सारे संसार को अपना आप समझो ; जैसा कि पुराने ईसाई कहा करते थे, "वृद्ध को मर जाने दो।" यह वृद्ध पुरुष वही स्वार्थी विचार है कि यह संसार हमारे सुख के लिये बना है। मूर्ख माता-पिता अपनी संतान को सिखाते हैं, "हे ईश्वर, तूने हमारे लिये सूर्य बनाया है, चंद्रमा बनाया है," जैसे ईश्वर को इन बच्चों के लिये सूर्य-चंद्रमा बनाने के सिवा दूसरा और काम न था। अपने बच्चों को ऐसी अनर्गल बातें न सिखाइये। इसके पश्चात् और लोग दूसरी प्रकार के मूर्ख हैं। वे कहते हैं कि पशु हमारे मारने-खाने के लिये बनाये गये हैं तथा यह संमार हमारे सुग्व-भोग के लिये है । यह सब वन मूर्खता है। बाघ भी कह सकता है,-"मनुष्य मेरे भोजन के लिये बनाया गया है और प्रार्थना कर सकता है, --"हे ईश्वर, ये मनुष्य