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( आत्मा ) दो विभाग किए गए है। अब जनसाधारण की यह सनक है कि आत्मा इस नश्वर शरीर मे थोड़े दिनो का मेहमान है।

इन तीनो प्रचलित प्रवादो से अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हुए है। जगत् को इस प्रकार मानव-व्यापार की दृष्टि से देखना हमारे तत्त्वाद्वैत सिद्धांत के नितांत विरुद्ध है और विश्वसंवधी वैज्ञानिक विवेचन से सर्वथा असिद्ध है।

इसी प्रकार द्वैतवाद ( जो आत्मा और शरीर अथवा द्रव्य और शक्ति को पृथक मानता है ) तथा प्रचलित मतो ( मजहबो ) के और और विचार भी तत्वाद्वैतवाद की विश्व--विज्ञान दृष्टि से नि सार ठहरते है। उक्त दृष्टि से यदि देखते है तो हम निम्नलिखित सिद्धांतो पर पहुँचते है जिनमे से अधिक की आलोचना सम्यक् रूप से हो चुकी है--

(१) जगत् नित्य, अनादि और अनंत है।

(२) इसका परमतत्त्व अपने दोनों रूपो ( द्रव्य और शक्ति ) के सहित अनत दिक् मे व्याप्त है और सदा गति मे रहता है।

(३) मूल गति का प्रवाह अनंत काल के मध्य अखंड क्रम से चला करता है। इसमे कहीं सृष्टि से विकृति कही विकृति मे सृष्टि बराबर होती रहती है।

(४) दिग्व्यापी आकाश द्रव्य (ईथर) के बीच जो असंख्य पिड फैले है वे सब के सव परमतत्त्व के नियमो के अनुसार चलते है। यदि एक दिग्विभाग के कुछ घूमते हुए पिड क्रमशः नाश या लय की ओर जाते हैं तो दूसरे दिग्विभाग मे क्रमशः