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जो गर्भाशय के त्वक् से कुछ लगी रहती हैं पर बहुत जल्दी अलग हो सकती हैं। ह्वेल आदि कुछ जलचर स्तन्य तथा घोड़े, ऊँट आदि कुछ खुरपाद इसी प्रकार के अपूर्ण जरायुज जंतु हैं। पूर्ण जरायुजो मे माता के गर्भाशय की झिल्ली से लगा हुआ जरायु का भाग एक चक्र के आकार का होता है जिसके पृष्ठ भाग से एक नाल भ्रूणपिड तक गया रहता है। यह जरायुचक्र माता के गर्भाशय की दीवार से बिल्कुल मिला रहता है जिससे प्रसव होने पर इस चक्र के साथ गर्भाशय का कुछ भाग भी उचड़ आता है और कुछ रक्तस्राव भी होता है। मनुष्य के गर्भपिड मे भी एकबारगी पूर्ण जरायु का विधान नही हो जाता, पहले वह अपूर्ण रूप मे रहता है। ( जैसा कि अपूर्ण जरायुजो मे ) फिर चक्र और नाल के रूप मे आता है। हाथी का जरायु वलय के आकार का होता है। चूहे, गिलहरी, खरहे आदि कुतरनेवाले जतुओ तथा घूस, बनमानुस और मनुष्य का जरायु चक्राकार होता है।

गर्भ की प्रारंभिक अवस्था मे मनुष्य के भ्रूण और दूसरे मेरुदंड जीवो के भ्रूण के बीच यह सादृश्य ध्यान देने योग्य है। इस सादृश्य का एक मात्र कारण यही हो सकता है कि समस्त जीव एक ही अदिम जीव से उत्पन्न हुए है--जीवो के भिन्न भिन्न रूप एक ही आदि पुरातनरूप से प्रकट हुए हैं । गर्भ की विशेष अवस्था मे हम मनुष्य, बंदर, कुत्ते, सूअर, भेड़ इत्यादि के भ्रणो मे कोई विभेद नही कर सकते। इसका कारण एक मूल से उत्पत्ति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? विकासवाद के विरोधी बहुत दिनों तक मनुष्य-भ्रूण के