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हुई हैं वे अत्यंत क्षुद्र और सादे जीव थे। सब से आदिम मूल जीव जड़ द्रव्य से उत्पन्न हुए थे। पैतृक प्रवृत्ति द्वारा ढाँचे का मूलरूप तो बराबर वंशपरंपरानुगत चला चलता है पर स्वभावपरिवर्तन और अवयवो के न्यूनाधिक प्रयोगभेद द्वारा स्थिति-सामंजस्य जीवो मे बराबर फेरफार करता रहता है। हमारा यह मनुष्यशरीर भी इसी प्राकृतिक क्रिया के अनुसार वनमानुसो के शरीर से क्रमशः परिवर्तित होते होते बना है। सृष्टि के समस्त व्यापारो का-क्या बाह्य क्या मानसिक-प्रकृत-कारण लामार्क ने भौतिक और रासायानक क्रियाओ को ही माना।

आदि ही से एक एक जीव की स्वतंत्र सृष्टि माननेवालो का भ्रम तो लामार्क ने अच्छी तरह दिखला दिया पर उसके सिद्धांतो का अच्छा प्रचार न हो सका। अधिकांश वैज्ञानिक उसका विरोध ही करते रहे। इस विषय मे पूर्ण सफलता आगे चल कर डारविन को हुई। उसने अपने समय के सब वैज्ञानिको से बढ़ कर काम किया‌। उसने अपने 'योनियों की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ के द्वारा विज्ञानक्षेत्र मे एक नवीन युग उपस्थित कर दिया। उसके सिद्धांत से सृष्टिसंबंधी बहुत सी समस्याओ का समाधान हो गया। प्राणिविज्ञान के भिन्न भिन्न विभागो मे जिन जिन बातो को पता लगा था सब का सामंजस्य डारविन ने अपने उत्पत्ति सिद्धात मे किया। यही नही, उसने एक रूप के जीव से वंशपरंपराक्रम द्वारा दूसरे रूप के जीव मे परिणत होने का जो कारण "ग्रहण क्रिया" है उसका भी पता लगाया। उसने दिखाया कि जिस प्रकार मनुष्य कुछ