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सातवाँ प्रकरण।

मनोविधान की श्रेणियाँ।

विकाशसिद्धांत की सहायता से मनोविज्ञान ने इधर जो उन्नति की है उसके द्वारा समस्त जीवसृष्टि के मनस्तत्व की एकता पूर्णतया प्रतिपादित हुई है। तारतम्यिक मनोविज्ञान ने भी यह निश्चय दिला दिया है कि एकघटक अणुजीव से लेकर मनुष्य पर्यत सब प्राणियो के जीवनव्यापार प्रकृति की उन्ही मूल शक्तियो अर्थात् सवेदन और गति से उत्पन्न हुए है। अतः अब मनोविज्ञान के तत्त्वो का निरूपण दार्शनिको के उन्नत अंत:करण की स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण के आधार पर ही नही होगा बल्कि जिन अनेक क्षुद्र या पाशव अवस्थाओ से क्रमश काल पाकर मनुष्य के उन्नत अंत करण की व्यवस्था हुई है उनकी संबंधपरपरा का भी पूर्ण विचार किया जायगा।

संपूर्ण मनोव्यापार शरीर के जीवनतत्त्वरूपी कललरस मे होनेवाले परिवर्तनो के अनुसार होते है। हमने कललरस के उस अंश का नाम जो मनोव्यापारो का आधार-स्वरूप प्रतीत होता है मनोरस रक्खा है। हम उसकी कोई विशेष स्वतत्र सत्ता नही मानते। हम आत्मा या मन को कललरस के अंतव्यापारो की समष्टि मात्र समझते है। इस निश्चय के अनुसार 'आत्मा' शब्द शरीर का एक विशेष धर्म सूचित करने के लिये एक भाववाचक संज्ञा मात्र है। मनुष्य तथा और दूसरे उन्नत