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जीवो से अवयवों और तंतुओ के कार्यविभाग के अनुसार मनोरस अलग विभक्त हो कर संवेदनग्राहिणी सवेदनसूत्रग्रंथियों की थातु का रूप धारण करता है। क्षुद्रकोटि के जीवो और पौधो मे जिन्हे संवेदना के लिए पृथक और विशिष्ट सूत्र या अवयव नही होते मनोरस इस प्रकार एक स्वतंत्र रूप में विभक्त नही होता।

एकघटक अणुजीवो मे मनोरस या तो घटक के समस्त कललरस ही को कह सकते है या उसके एक अंश को। उनमें संवेदनग्राही सूत्र आदि अलग नही होते। क्षुद्र से क्षुद्र और उन्नत से उन्नत मनोविधान में मनोधातु की कुछ रासायनिक योजना और भौतिक क्रिया के बिना 'आत्मा' का व्यापार नहीं उत्पन्न हो सकता। अणुजीवो की कललरसगत क्षुद्र संवेदना और गति से लेकर मनुष्य आदि उन्नत प्राणियो के जटिल इद्रिय व्यापार और मस्तिष्क-व्यापार तक सब के विषय मे यही नियम हैं। मनोरस की वह क्रिया जिसे हम 'आत्मा' कहते है शरीर के द्रव्यवैकृत्य धर्म * से संबद्ध है।

समस्त जीव संवेदनग्राही है। वे अपने चारो ओर स्थित पदार्थों का प्रभाव ग्रहण करते हैं और अपने शरीर की स्थिति


  • metabolism घटकों या तंतुओं की बह किया जिसके अनुसार वे रक्त द्वारा प्राप्त पोषक द्रव्यो को अपने अनुरूप रस या धातु में परिवर्तित कर लेते है या घटकस्थ कललरस को विश्लिष्ट कर के ऐसे सादे द्रव्यो में परिणत कर देते है जो पाचनरस बनाने और मल निकालने मे काम आते हैं।