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नहीं है बल्कि कार्योपयुक्त परिवर्तन और वंशपरंपरागत उन्नति क्रम के द्वारा प्राप्त होती है।

( ४ )चौथी अवस्था मे समस्त संवेदनविधानो अर्थात इद्रियव्यापारो का एक स्थान पर समाहार होता है। विकीर्ण या भिन्न भिन्न स्थानो पर स्थित इंद्रियव्यापारो का एक स्थान पर समाहार होने से अंत संस्कार उत्पन्न होता है, अर्थात् इंद्रियसंवेदनो के स्वरूप अंकित होते हैं। पर चेतन अंतः करण का विकाश न होने के कारण उन स्वरुपो का कुछ वोध नही होता। यह अवस्था बहुत से क्षुद्र जंतुओ की होती है।

( ५ )पॉचवी अवस्था मे अंकित इंद्रियसवेदनो का प्रतिबिब संवेदन-सूत्रजाल या विज्ञानमयकोश के केद्रस्थल मे पड़ता है जिससे अतःसाक्ष्य या स्वांतवृत्तिबोध उत्पन्न होता है। * इस प्रकार चैतन्य की उत्पत्ति हो जाने पर जीव को अपने ही अंत.करणके व्यापारो को बोध होने लगता है। मनुष्य तथा दूसरे रीढ़वाले जंतु इसी चेतन अवस्था के अंतर्गत हैं।

समस्त जीवधारियो मे "स्वत.प्रवृत्त गति" की भी शक्ति होती है। सजीव मनोरस का कुछ ऐसा रासायानिक संयोग होता है कि कारण पाकर उसके अणु अपना स्थान बदलते है। इस प्रकार की सजीव गति कुछ तो हम ऑखो से देख सकते हैं। यह गति पाँच अवस्थाओ मे पाई जाती है---


  • अतःकरण से आत्मा को पृथक् माननेवाले यहीं से आत्मा का प्रादुर्भाव मान सकते हैं। आत्मा का नाम चैतन्य हैं।