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( १ ) जीवविधान की अत्यंत क्षुद्र प्रारंभिक अवस्था मे, जैसे समुद्र के क्षुद्र उद्भिदाकार कृमियो आदि अत्यंत निम्न श्रेणी के जीवों मे, केवल "अंगवृद्धि की गति" देखी जाती है। हम उनके आकार की क्रमशः होनेवाली वृद्धि और परिवर्तन को देख कर ही इस गति का अनुमान कर सकते हैं।

( २ ) बहुत से उद्भिदाकार सूक्ष्म जंतु आगे की ओर एक लसीला पदार्थ निकाल कर शरीर ढालते हुए रेगतें या तैरते हैं।

( ३ ) बहुत से क्षुद्र समुद्री अणुजीव कभी घटस्थ वायु को निकाल कर और कभी तरलाकर्पण * शक्ति के द्वारा अपने गुरुत्व मे अंतर डाल कर पानी मे नीचे जाते या ऊपर उठते है।

( ४ ) बहुत से पौधे, जैसे लजालू ( लज्जालु ) अपने शरीर के तनाव मे फेरफार करके अपनी पत्तियो तथा और अवयवो को हिलाते है अर्थात् वे अपने घटस्थ कललरस के तनाव को घटा बढ़ाकर अपने अवयवो को सुकोड़ते या फैलाते है।

( ५ ) सजीव पदार्थों की सब से अधिक ध्यान देने योग्य गति आकुंचन है। इसमें जीव के बाहरी अवयवों की स्थिति मे जो अतर पड़ता है वह शरीरस्थ द्रव्यो के आकुंचन


  • द्रव पदार्थों में परस्पर मिलने की प्रवृत्ति जो अणुओं के परस्पर आकर्षण से संबंध रखती है।