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घनिष्ठ संबंध वाणी की उन्नति से है। वाणी की योजना भी न्यूनाधिक क्रम से जीवों मे पाई जाती है। यह नही है कि एकमात्र मनुष्य ही को वह प्राप्त है। किसी न किसी रूप में वह समूह मे रहनेवाले समस्त मेरुदंडजीवो में थोड़ी बहुत पाई जाती है। एक दूसरे का अभिप्राय समझने के लिये उसकी आवश्यकता होती है। कहीं स्पर्श द्वारा, कही संकेत द्वारा और कही मुँह से निकले हुए शब्द द्वारा अभिप्राय प्रकट किया जाता है। पक्षियो और वनमानुसो की बोली, कुत्तो का भूँकना घोड़ो का हिनहिनाना इत्यादि पशुवाणी के नमूने है। इनसे कुछ न कुछ भाव अवश्य प्रकट होता है। पर मनुष्य ही मे उस वर्णविकाशयुक्त वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है जिसके सहारे उसकी बुद्धि इस उन्नति को पहुँची है। भाषाविज्ञान ने यह पूर्ण रूप से सिद्ध कर दिया है कि भिन्न भिन्न मनुष्यजातियो की जितनी समृद्ध भाषाएँ है सब की सब किसी न किसी सीधी सादी आदिम भाषा से धीरे धीरे उन्नति करती हुई बनी है। भाषा का विकाश भी ठीक उसी क्रम से धीरे धीरे हुआ है जिस क्रम से जीवो की जातियो का विकाश, उनकी इंद्रियो और शक्तियो का विकाश। पशुवाणी और मनुष्यवाणी मे केवल न्यूनाधिक का भेद है, वस्तुभेद नही।

अंत करण के उन व्यापारो का विचार भी जो उद्वेग कहलाते हैं मनोविज्ञान मे अत्यंत आवश्यक है। उनके द्वारा वह सबंध अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है जो मस्तिष्क-व्यापारो और शरीर के दूसरे व्यापारो ( जैसे, हृदय की धड़कन, इंद्रियो के क्षोभ, और पेशियों की गति ) के बीच है। मनुष्य में