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अंत करण के उद्वेगसंबंधी जो व्यापार दिखाई देते हैं वे कुत्ते, वनमानुस आदि उन्नत पशुओ में भी देखे जाते हैं। समस्त उद्वेग इंद्रियसंवेदन और गति इन्हीं दो मूल व्यापारो के योग से प्रतिक्रिया और अंत.संस्कार द्वारा बने हैं। राग और द्वेष का अनुभव इद्रियसंवेदन क्रिया के अंतर्गत है। इच्छा और विरक्ति, अर्थात् रुचिकर वस्तु की प्राप्ति और अरूचिकर के परिहार का प्रयत्न, ( पेशियों की ) गति के अंतर्भूत है। 'आकर्षण' और 'विसर्जन’ इन्ही दोन क्रियाओ के द्वारा 'संकल्प' की सृष्टि होती हैं जो व्यक्ति का प्रधान लक्षण है। मनोवेग मनुष्य और पशु दोनों में होते है। क्षुद्र से क्षुद्र कोटि के अणुजीवो में भी रुचि और अनाच का मूल संस्कार होता है जिसका पता उनकी प्रवृत्तियो से लगा है। उनमे कुछ प्रकाश की ओर प्रवृत्त होते हैं, कुछ अधकार की ओर, कुछ शीत की ओर और कुछ ताप की ओर। इन्ही मूल वासनाओं से आगे चल कर उन्नत अंत.करणवाले सभ्य मनुष्यो के उल्लास और खेद, ग्रीति और घृणा आदि मनोवेग निकले हैं जिनसे सभ्यता का विकाश हुआ है और कवियो को अक्षय सामग्री प्राप्त हुई है। इस प्रकार क्षुद्र से क्षुद्र अणुजीवस्थ मनोरस की मूलवासना से लेकर मानव अंत.करण के विविध मनोवेगो तक संबंधसूत्र की परंपरा चली गई है। मनुष्य के मनोवेग भी भौतिक नियमों के अधीन हैं यह बात कई दार्शनिक सिद्ध कर चुके हैं।

अब संकल्प को लीजिए जिसे लोग जीवधारियों की एक ऐसी विशेषता समझते हैं जिसका भौतिक नियमों से कोई