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होता है। यह सूक्ष्म अंकुरघटक पहले दो घटको मे विभक्त होता है, फिर दोनो घटक विभक्त होकर चार घटक हो जाते है। चार से आठ, आठ से सोलह, सोलह से बत्तीस, बत्तीस से चौसठ इसी प्रकार घटको की संख्या बराबर बढ़ती जाती है। यहाँ तक कि वे सब मिल कर सूक्ष्म बुद्बुदगुच्छ या शहतूत का सा आकार धारण करते है। इस गुच्छ को कललगुच्छ कहते है। धीरे धीरे घटको के इस गुच्छे के बीच एक प्रकार का रस इकट्ठा हो जाता है और यह गुच्छा झिल्ली का एक कोश या घट बन जाता है। यह इस प्रकार होता है कि सारे घटक रस के ऊपर आकर एक झिल्ली के रूप मे जम जाते हैं जिसे मूलकला कहते हैं। इस कला द्वारा जो गोल कोश बनता है उसे अंकुरकोश या कललकोश कहते है।

कललकोश के निर्माण मे घटकसमूह के जो मनोव्यापार दिखाई पड़ते हैं वे कुछ तो संवेदन हैं और कुछ गत्यात्मक क्रियाएँ है। गति इसमे दो प्रकार की होती है--एक तो आभ्यंतर गति जो विभाग के समय घटक की भीतरी गुठली के स्थितिपरिवर्तनक्रम मे देखी जाती है, दूसरी वाह्यगति जो घटको के स्थिति बदलने और परस्पर मिल कर झिल्ली बनाने मे देखी जाती है। हम इन गतियो को कुलपरंपरागत और अचेतन (अज्ञानकृत) मानते हैं। ये उन एकघटक अणुजीवो के धर्म है जिनसे समस्त बहुघटक प्राणियों का विकाश हुआ है। कुलपरंपरानुसार ये धर्म किसी न किसी रूप में अबतक प्रकट होकर कुछ काल तक रहते है। संवेदन भी दो प्रकार के होते हैं—(क) प्रत्येक घटक के पृथक्