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एक एक कण बढ़ कर पुछल्लेदार कीटाणु ( जैसा कि शुक्रकीटाणु होता है ) हो जाता है। स्त्रीघटक बढ़ कर गर्भाड के रूप में हो जाता है। स्पंज के शरीर के भीतर ही पु० कीटाणु गर्भांडरूप कीटाणु मे प्रवेश करता है। संयोग के उपरांत एकीभूत पिड भीतर ही भीतर कुछ काल तक बढ़ता है, फिर बाहर निकल कर डिभकीट के रूप मे रोइयो के सहारे जल में तैरता फिरता है और अंत में किसी चट्टान पर जम कर बढ़ते बढ़ते स्पंज के रूप में हो जाता है।

स्पज से उन्नत कोटि के जीव छत्रक, मूँगे आदि होते है जिनके शरीर में अवयवविधान कुछ अधिक होता है। उनके मुखविवर के नीचे एकबारगी खाली जगह नही पड़ती वल्कि नली के आकार का एक स्रोत थोड़ी दूर तक होता है, पक्वाशय अलग होता है, शिकार पकड़ने के लिये बहुत सी भुजाएँ होती है।

छत्रक कृमि की उत्पत्ति विलक्षण रीति से होती है। समुद्र या झील आदि में लकड़ी के तख्तो या चट्टानो पर रुई की तरह कोमल एक प्रकार के कृमियो का समूहपिड जमा मिलता है जो देखने में बिल्कुल पौधे के आकार का होता है। इसे खडवीज कहते हैं क्योकि यदि इसके कई खंड कर डाले तो प्रत्येक खंड बढ़ कर पूरा कृमिपिड हो जाता है। इसके प्रधान कांड मे से जगह जगह शाखाएँ निकली होती है जो सिरे पर चौड़ी हो कर गिलास के आकार की होती है। इसी गिलास के भीतर असली कृमि बंद रहता है, केवल उसकी सूत की सी भुजाएँ इधर उधर बाहर निकली होती हैं। अचरपिड मे बद्ध रहने वाले ये कृमि केवल नली के आकार के होते हैं।