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है। मुँह के नीचे साँस लेने की थैली होती है जिसमें बहुत से छेद होते हैं। यह थैली नीचे उदराशय से मिली होती है। ( जिसमे अँतड़िया होती हैं) और झुक कर उत्सर्गद्वार तक गई होती है। भीतर खींचा हुआ पानी अम्लजन या प्राणदवायु शरीर मे पहुँचा कर इसी द्वार से निकल जाता है। हृदय एक लंबी नली के आकार का होता है और शरीरघट के पिछले भाग में स्थित होता है। इसका विज्ञानमय कोश एक संवेदनग्रंथि मात्र होता है जो मुहँ और उत्सर्गद्वार के बीच में रहती है‌। इस संवेदनग्रंथि की स्थिति से रीढ़वाले जंतुओं के साथ इसके संबध का पता लगता है। पर सब से बढ़ कर प्रमाण अडे से निकलने पर इसकी वृद्धि के क्रम की ओर ध्यान देने से मिलता है। अंडे से जो डिभकीट निकलता है वह मेढक के डिभकीट ( छुछमछली ) से बिल्कुल मिलता है। दोनों में उन चार विशेष अंगो का विधान होता है जो समस्त रीढ़वाले जंतुओं मे गर्भावस्था से लेकर किसी न किसी अवस्था मे पाए जाते है। चारो अंग ये है---(१) गला और गलफड़ो के छिद्र ( २ ) मेरुदंडाभास, जो एक चिकने सूत्रदंड की तरह का होता है और रीढ़ का पूर्व रूप है। ( ३ ) मस्तिष्क और मेरुरज्जु तथा ( ४ ) दर्शनेद्रिय जो मस्तिष्क के भीतर होती है। आँखवाले बिना रीढ़ के जंतुओ की दर्शनेद्रिय का सवेदनपटल ( प्रकाश ग्रहण करनेवाला भाग ) ऊपरी त्वक् से ही उत्पन्न होता है। डिभकीट अवस्था से आगे चल कर इस समुद्रजंतु और मेढक के डिभकीट एक दूसरे से भिन्न अवस्था को प्राप्त होते हैं। मेढ़क का डिंभकीट तो छुछमछली की