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अवस्था से जलस्थलचारी जंतु हो जाता है, गलफड़ों के स्थान पर सांस लेने के लिये उसे फेफड़ा उत्पन्न हो जाता है, दुम उसकी गायब हो जाता है और चार पैर निकल आते हैं। अर्थात् जलचर मछली के रूप से जलस्थलचारी मेंढक के रूप में आने मे मेढक के प्राचीन पूर्वजो ने जिन अवस्थाओ को पार किया है मेढक के डिंभवृद्धिक्रम मे उनकी संक्षिप्त उद्धरिणी देखी जाती है। पर उक्त समुद्रजंतु का डिभकीट आगे चल कर भिन्न अवस्था को प्राप्त होता है। उसकी दुम, मेरुरज्जु संवेदनरञ्जु और आंख गायब हो जाती है, मस्तिष्क छोटा सा रह जाता है, गलफड़ों के छिद्र अधिक होजाते है, त्वक कड़ा हो जाता है और अंत में वह बिना हाथ पैर और आँख का थैली के आकार को जंतु होकर अचल पौधे की तरह किसी चट्टान आदि पर जम जाता है और वही पौधे की तरह पर उसका पोपण होता है।

थैली के आकार के समुद्री जन्तु से कुछ उन्नत कोटि का एक और जन्तु होता है जिसे अकरोटी मत्स्य ( बिना सिर की मछली ) कहते है। यह देखने में जोक की तरह का एक झलझलाता हुआ कीड़ा होता है जिसे सिर नहीं होता और आँख भी एकही होती है। इसके मुहँ पर खड़े खड़े सूत से होते है जिसके द्वारा यह खाद्यपूर्ण जल भीतर लेता है। यह जल मुहँ के नीचे चौड़ी गलनाल में जाकर प्राणदवायु प्रदान करता हुआ उत्सर्गद्वार से होकर निकल जाता है। कोई हृत्पिड न होने के कारण रक्त का संचालन नलियो के आकुंचन द्वारा होता है। इस जन्तु की गिनती रीढ़वाले प्राणियो मे की गई है क्योकि