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कि स्थूल भौतिक मस्तिष्क ही अधिष्ठान रूप में इन भिन्न भिन्न ज्ञानो का समाहार करनेवाला है तो यह भी ठीक नही, क्योकि शरीरविज्ञानी कहते हैं कि और और घटको के समान मस्तिष्क के घटक भी अपनी उत्पत्तिपरंपरा के अनुसार अल्पकाल मे ही बदल जाते हैं। इससे सिद्ध है कि कोई एक परिणामरहित सत्ता है जो सव अवस्थाओं मे एकरूप बनी रहती है। चेतना की यह एकता ही चेतन सत्ता की एकता का प्रमाण है। आत्मा एक वस्तु या सत्ता है द्रव्यगुण या वृत्ति मात्र नही है यह बात तो सिद्ध हुई। अब यह सत्ता अभौतिक है----भूतो से परे है--इसके प्रमाण में आत्मवादी जो कहते हैं वह भी थोडे में सुन लीजिए।

विकाशासिद्धांत पर लक्ष्य रखनेवाले मनोविज्ञानी कहते हैं कि इंद्रियज ज्ञान या संवेदन ही मूल उपादान है जिनके पुनरुद्भावन, समाहार और मिश्रण द्वारा जाति या सामान्य ( जैसे, गोत्व, पशु आदि ) की भावना, विचार, तर्क संकल्प विकल्प अदि की योजना होती है। आत्मवादियो का कहना है कि ये उन्नत वृत्तियाँ सवेदनो से सर्वथा भिन्न कोटि की है। पहली बात तो यह कि संवेदन न तो अपने अस्तित्व का आप अनुभव कर सकता है, न पदार्थों के गुणों से जाति


कुछ सोच रहा हूँ या स्मरण कर रहा हूँ। यह सोचना या स्मरण करना आत्मा को व्यापार नहीं, आत्मा का तो केवल यह ज्ञान है कि 'मैं यह सोच रहा हूँ' या मैं यह स्मरण कर रहा हूँ' । शुद्ध चैतन्य का लक्षण यही है।