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की भावना कर सकता है और न दुसरे संवेदना के साथ अपने संबध का बोध कर सकता है। हमारे सामने एक नारंगी रखी है। यो ही हमारी दृष्टि उस पर पड़ रही है और हमे उसके वहाँ रहने भर का ज्ञान है। यहाँ तक तो संवेदन या इद्रियज ज्ञान हुआ। अब हम उसकी ओर ध्यान देते हैं---अर्थात् मन या आत्मा को उसकी ओर प्रवृत्त करते हैं। अब हमे उसकी गोलाई की, रंग की ओर स्वाद की भावना होती और हम इन गुणों को दूसरे फलो के गुणो से मिलाते हैं।* शुद्ध गुणो की यह भावना और उनका मिलान करनेवाला संवेदन से भिन्न कोई दूसरा ही है। दो वस्तुओ अर्थात् उनसे प्राप्त इंद्रियज संवेदनो को आगे रखकर देखनेवाला उन दोनो संवेदनो से भिन्न होना चाहिए। इसी प्रकार सामान्य और जाति की भावना भी इंद्रियज ज्ञान से परे है और एक अभौतिक सत्ता का आभास देती है। इंद्रियों द्वारा जो कुछ हमे ज्ञान होता है वह विशेष का ही। हमे राम, गोपाल आदि विशेष मनुष्यो, हरे पीले आदि विशेष रंगो, भूखे को अन्नदान आदि विशेष व्यापारो का ही प्रत्यक्ष होता है, मनुष्य, रग दया आदि सामान्यो का नहीं जो देशकाल से परे हैं। समस्त भौतिक व्यापार देश काल के भीतर होते है, अतः ये अभौतिक व्यापार है। ये व्यापार किसी वस्तु या सत्ता के हैं, अतः वह वस्तु


* न्याय की परिभाषा मे 'कोई वस्तु सामने है' इस इतने ज्ञान को निर्विकल्पक और ‘वस्तु यह है, ऐसी है, वैसी है' इस ज्ञान को सविकल्पक ज्ञान कहते हैं।