सातवाँ अध्याय ] किया-वह यह कि उनमें जातीय कहरता और संकीर्णता उत्पन्न हो गई । यज्ञ कराना एक पैतृक व्यवसाय हो गया और पीछे से वही एक लाति या वर्ण के रूप में बदला गया। धार्मिक रीतियों का प्राडम्बर बहुत अधिक बढ़ गया था । पुरोहितों के कृत्यों को सजा लोग स्पर्धा से करते वे-स्पर्धा से दान देते थे इसलिए उनका मान सर्व साधारण में खूब हो गया था। वे बेटी व्यवहार परस्पर करने लगे थे परन्तु अन्य कुल की कन्या कृपापूर्वक ले लेते थे पर देते नहीं थे। यही दशा राजाधों की हुई । उन्होंने भी अपना एक वर्ण सुगठित कर लिया और बेटी व्यवहार में वही नियम प्रर्चालत कर लिया। विदेह कोशल श्रादि के राजा-राज्य सत्ता, गठ और ब्रह्मज्ञान के कारण प्रना की दृष्टि में देव- तुल्य माने जा रहे थे। ऐसी दशा में उनकी कन्याएं मांगने का साहस कौन करता ? परन्तु ब्राह्मण धन और सम्मान में उनकी बराबरी के व्यक्ति थे। उनके साथ बेटी व्यवहार उनका प्रथम प्रवाध रूप से चलता रहा पीछे ब्राह्मणों ने जब क्षत्रियों पर प्रधानता प्राप्त की तब उन्होंने क्षत्रियों को कन्याएँ देना बन्द कर दिया। यह वात तो स्पष्ट होती है कि इस काल में जो वर्णभेद हुया वह व्यवसाय प्रधान हुआ । व्यवसायों की भिन्नता ही उसका कारण थी। वायु पुराण में लिखा है कि --श्रादि वा कृत युग में जाति भेद नहीं था और इसके उपरान्त ब्रह्मा ने मनुष्यों के कार्य के अनुसार उनमें भेद किया। उनमें से जो लोग शासन करने योग्य थे और लड़ाई भिड़ाई के काम में उद्यत थे उन्हें औरों की रक्षा करने के कारण उसने क्षत्री बनाया । वे निम्बार्थी लोग जो उनके साथ रहते थे, सत्य बोलते थे, और वेदों का उच्चारण भली भाँति करते थे ब्राह्मण हुए। जो लोग पतले दुर्बल थे, किसानों का काम करते थे, भुमि जोतते बोते थे, और उद्यमी थे; वे वैश्य अर्थात् कर्षक और जीविका उत्पन्न करनेवाले हुए। जो लोग सफाई करनेवाले थे और नौकरी करते थे और जिनमें बहुत ही कम &
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