१४२ [ वेद और उनका साहित्य वल वा पराक्रम था वे शृद कहलाए । " ऐसे ही ऐसे वर्णन और पुराणों में पाए जाते है। रामायण अपने श्राधुनिक रूप में बहुत पीछे के कान में बनाई गई थी। जैसा कि हम ऊपर दिखना चुके है । उत्तर काण्ड के १४ वे अध्याय में लिखा है कि कृत युग में केवल ब्राह्मण ही लोग तपस्या करते थे; श्रेता युग में शुत्री लोग उत्पन्न हुम अोर तब धाधुनिक चार जातियाँ बनी । इस कथा की भाषा का ऐतिहासिक भाषा में उत्यो कर डालने से इसका यह अर्थ होता है कि वैदिक युग में हिन्दू आर्य लोग संयुक्त धे और हिंदुओं के कृत्य करते थे परन्तु ऐतिहासिक काव्य काल मे धर्मा- पक्ष और राजा लोग जुदे होकर जुर्दी-जुदी जाति के हो गये और जन माशारण भी वैश्यों और शूद्रों की नीचाय नालियों में बंट गये। हम यह भी देख चुके है कि महाभारत भी अपने श्राधुनिक रूप में बहुत पीछे के समय का ग्रन्थ है। परन्तु उसमें भी जाति की उत्पत्ति के प्रन्या और यथार्थ वर्णन पाये जाते है । शान्ति प के १८ अध्याय में लिखा है कि “ लाल अङ्ग वाले दिन लोग जो मुख भोग में थासक्त क्रोधी और माहसी थे और अपनी यज्ञादि की क्रिया को भूल गरे थे, वे क्षत्री के वर्ण में हो गये । पीले रंग के द्विज लोग जो गोश्रो और खेती. बारी से अपनी जीविका पालने थे और अपनी धार्मिक क्रियायो को नहीं करते थे वे वैश्य वर्ण मे हो गये । काले हिज लोग जो अपवित्र दुष्ट, मठे और लालची थे और जो हर प्रकार के काम करके अपना पेट भरते थे, शूद्र वर्ण के हुए । इस प्रकार द्विज लोग अपने अपने कर्मों के अनुसार जुदे होकर भिन्न-भिन्न जालियों में बट गये । इन वाक्यों के तथा ऐसे ही दूसरे वाक्यों के लिखनेवाले निःसन्देह इस कथा को जोनते थे कि चारों जातियों की उत्पत्ति प्रमा की देह के चार भागों से हुई है। परन्तु उन लोगो ने इसे स्वीकार न करके इसे कवि का अलंकारमय वर्णन समझा है । जैसी कि वह यथार्थ में ,
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