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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/१४५

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[ सातवाँ अध्याय ] वे बराबर इस बात को लिखते हैं कि पहिले पहल जातियाँ नहीं थी और वे बहुत ही अच्छा तथा न्यायसंगत अनुमान करते हैं कि काम- कान और व्यवसाय के भेद के कारण पीछे से जाति भेद हुा । अब हम इस प्रसंग को छोड़ कर इस बात पर थोड़ा विचार करेंगे कि ऐतिहासिक कास्य काल में जाति भेद किस प्रकार था। हम ऊपर कह चुके हैं पहिले पहल जाति भेद गंगा के तटों के प्रांत- वासियों ही में हुआ । परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि इस रीति के बुरे फल तब तक दिखायी नहीं दिये और न तब तक दिखायी दे ही सकते थे जब तक कि हिन्दू लोगों के स्वतन्त्र जाति होने का अन्त नहीं हो गया। ऐतिहासिक काव्य काल में भी लोग ठीक ब्राह्मणों क्षत्रियों की नाई धर्म विषयक ज्ञान और विद्या सीखने के अधिकारी समझे नाते थे और ब्राह्मारों क्षत्रियों और वैश्यों में किसी-किसी अवस्था में परस्पर विवाह भी हो सकता था। इसलिए प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास पढ़ने- चाले इस जातिभेद की रीति के श्रारम्भ होने के लिए चाहे कितना ही अफसोस क्यों न करें पर उन्हें याद रखनी चाहिए कि इस रीति के बुरे फल भारतवर्ष में मुसलमानों के आने के पहिले दिखायी नहीं पड़े थे। श्वेत यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में कई व्यवसायों के नाम मिलते हैं जिससे कि उस समय के समाज का पता लगता है जिस समय इस अध्याय का संग्रह किया गया था। यह बात तो स्पष्ट है कि इसमें लो नाम दिए हैं वे जुदे-जुदे व्यवसायों के नाम हैं कुछ जुदी-जुदो नातियों के नहीं है । जैसे २० और २२ करिडका में भिन्न-भिन्न प्रकार के चोरों का उल्लेख है और २६ वी में घोड़ सवारों, सारथियों और पैदल सिपाहियों का । इसी प्रकार से २७ वी कण्डिका में जो बदइयों, रथ बनानेवालों कुम्हारों और लुहारों का उल्लेख है वे भी भिन्न-भिन्न कार्य करनेवाले भिन्न जातियाँ नहीं हैं। उसी करिडको में निपाद और दूसरे-दूसरे लोगों का भी वर्णन है । यह स्पष्ट है कि ये लोग यहाँ की प्रादि देशवासिनी -