सातवां अध्याय ] व्यवसाय करते थे । वैश्य वामल और ती यही तीन मिनकर सायं जाति बनाते थे और चे इस जाति के सय म्यश्व के धीर पैतृक विता धौर धर्म सीखने के अधिकारी थे । केवल पराजित सादियामी दी जो राव जाति के थे, धार्यों के स्वयों से अलग रकले गये थे। पुराने समय को जाति-नीति और प्राजकन की जाति-रीति में यही मुख्य भेद हैं । पुराने समय में जाति ने बालों को कुछ विशेर धि कार और ऋत्रियों को भी कुछ विशेष अधिकार दिया था। पर धार्यों को कदापि वाँट कर अलग-अलग नहीं कर दिया था। मामल, नया, और साधारण लोग यद्यपि अपना जुदा-जुदा पैतृक व्यवसाय करते थे, पर वे सब अपने को एक ही जाति का समझते थे, एक ही धर्म की शिक्षा ते थे, एक ही पाठशाला में पढ़ने जाते थे; उन सब का एक ही माहिल्य और कहावतें थीं, सब साथ ही मिल कर साते-पीते थे, सब प्रकार से आपस में मेल-मिलाप रखते थे और एक दूसरे से विवाह भी करते थे और अपने को पराजित श्रादिवासियों से भिन्न “धार्य जाति" कहने में अपना बड़ा गौरव समझते थे। पर अाजकल जाति ने वैश्य अार्यों को सैंकड़ों सम्प्रदायों में जुदा-जुदा कर दिया है। इन सम्प्रदायों ने जाति-भेद बहुत ही बढ़ा दिया है, उनमें परस्पर विवाह और दूसरे सा- माजिक हेलमेल को रोक दिया है सब लोगों में धर्म, ज्ञान और साहित्य का अभाव कर दिया है और उन्हें वास्तव में शूद्र बना दिया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में बहुत से ऐसे वाक्य मिलते हैं जिनसे जान पड़ता है कि पहिले समय में जाति भेद ऐसा कड़ा नहीं था जैसा कि पीये के समय में हो गया । उदाहरण के लिए ऐतरेय ब्राह्मण (६०-२६) में एक अपूर्व वाक्य मिलता है। जब कोई क्षत्री किसी यज्ञ में किसी ब्राह्मण का भाग खा लेता है तो उसकी सन्तान ब्राह्मणों के गुणवाली होती है जो दान लेने में तत्पर, सोम की प्यासी और भोजन की भूखी होती है और अपनी इच्छा के अनुसार सब जगह घसा करती है और. का
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