[ वैद और उनका साहित्य गया है, यज्ञो के समान ही शिक्षा का भी धार्मिक भावश्यकता से हो जन्म हुधा, क्योकि किसी यज्ञ कार्य को पूर्ण करने के लिये केवल उनको उस यज्ञ को जानना ही प्रावश्यक नहीं है किन्तु वेद मन्त्रों का क-ठीक उच्चारण और उनका दिना गलती किये हुए पाठ करना भी थावश्यक है, इससे यह परिणाम निकलता है कि शिक्षा के ऊपर ग्रन्थ लिखे जाने के पूर्व ही वेदमन्त्र शिक्षा के क्रम पर आ चुके थे, क्योंकि ग्वेद के मंत्र उस रूप में नही मिलते जिसमें उनको प्रारम्भिक काल में बनाया गया था, यद्यपि सम्पादकों ने कोई भी शब्द स्वयं नहीं बदला किन्तु उसके शब्दों में विशेष उच्चारण, विशेष उतार चढ़ाव के स्वर इत्यादि इस प्रकार डाल दिये गये कि वह ठीक-ठीक शिक्षा के ढह पर बन गये, उदाहरणार्थ संहिता में हम पढ़ते हैं। "त्वंचंग" किन्तु यह प्रमाणिन किया जा सकता है कि प्राचीन सूत्रकारों ने इसको त्वं हि अंगे' कहा था. अतएव वैदिक संहिताएं स्वयं भी शिक्षा के विद्वानों की रचनाएँ हैं, किन्तु संहिताओं में रखे हुए संहिता पाठ के अतिरिक्त ' पद पाठ ' भी किया जाता है, जिसमें प्रयेक शब्द को पृथक्- पृथक् करके पढ़ा जाता है, दक्षिण में धन पाठ, जटा पाठ धादि धन्य भी अनेक पाठ प्रचलित है, संहिता पाठ और पद पाठ की विभिनमा एक उदाहरया से स्पष्ट हो जावेगी, मम्वेद का एक मन्त्र यह है- ग्नि, पूभि पिभिरीड्यो मूतनैस्त स देवाँ एह वक्षति पद पाठ में इसको इस प्रकार कर दिया जावेगा-- 'अग्नि, पूर्वेति. -अपि-भिः । नूतनै । उहं स देवौं । प्रा। इह । वति। ग्वेद का पद पाठ करनेवाला शाकश्य समझा जाता है यह वही अध्यापक है, जिसका ऐतरेय धारण्यक में वर्णन था चुका -
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