अाठवां अध्याय ] । - समय मात्रा ना सकता है। सबसे बड़ा प्रमाण होने के कारण पाणिनिने अपने से पूर्व सभी प्राचार्यों का खण्डन किया. जिनके वन्य नष्ट हो चुके हैं उनमें से केवल यास्क हो बता है, वह भी संभवत इस कारण से फि बह सीधे तौर से वैयाकरणी नहीं है क्योंकि उसका अन्य वेदांग निनक्त है, शाकटायन के नाम का एक व्याकरण अब भी मिलता है किन्तु अभी तक किसी विद्वान् ने उसकी तुलनात्मक आलोचना से यह प्रगद नहीं किया कि इस शाकटायन के व्याकरण में सब मत विद्यमान हैं. जिनका यास्क और पाणिनी ने खण्डन या मण्डन किया है। निरुक्त यास्क का निरुक्त वास्तव में एक वैदिको टीका है, यह इस विषय के किसी भी अन्य से कई शताब्दी प्राचीन है, यह निवण्टु के अाधार पर बना है, जो कि वैदिक कोष है, दन्तकथाओं में निघण्टु को भी यास्क की ही रचना माना है, किन्तु वास्तव में यास्त्र ने इन शब्दों के ऊपर टीका ही लिखी है, निघण्टु के शब्दकोष के विषय में यास्क कहता है कि वह प्राचीन ऋषियों का बनाया हुआ है, जिससे वेदार्थ को सुगमता से समझा जा सके, निघण्टु में शब्दों की पाँच प्रकार की सूचियाँ हैं, जो तीन काण्डों में विभक्त हैं, पहिले नैघण्टुक काण्ड में तीन सूचियाँ हैं, जिन में वैदिक शब्द विशेष अभिप्रायसे एकत्रित किये गये हैं, उदाहरणार्थ पृथ्वी के २१, स्वर्ण के १५, के वायु के १६, जल के १०१, जानक्रिया के १२२ नाम दिये गये हैं, दूसरा नैगम काण्ड या ऐकपदिक है, इसमें वेट के अत्यन्त कठिन शब्दों के अर्थ हैं, तीसरे दैवतकाण्ड में पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग के कम से देवताओं का विभाग किया गया है, सम्भवतः इस प्रकार के अन्य से वेदों के अर्थ की ओर प्रवृत्ति ढाली गई, निरुक्त जैसे अन्यों का लिखा जाना वैदिक अर्थ के लिये दूसरा प्रयत्न था, यास्क के + और भी बहुलसे निरुक्त थे, जिनमें से अब कोई भी नहीं बचा है, . . ,
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