पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/१७३

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अध्याय नवा ] , श्रापलायन ब्राझणकाज का न होकर पाणिनि का समकालीन होना चाहिये, क्योंकि अयन' प्रत्यय लगाकर नाम बनाने की परिपाटी ब्राह्मण काल की नहीं है, प्राश्वलायन ने आश्मरथ्य और लैलवली ऋपियों का उल्लेख किया है, जिनका नाम पाणिनि के अप्टाध्यायी में भी पाया जाता है। अन्त में उन्होंने बहुत ब्राह्मण परिवारों की नामावली दी है, जिनमें से मुख्य भृगु, अगिरा, अत्रि, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ट, थोर अगस्त्य है । सरस्वत्तो पर के यज्ञ का वर्णन बहुत संक्षेप में किया गया है, यही श्राश्वलायन ऐतरेय श्रारण्यक के चौथे काण्ड का रचयिता है तथा शौनक का शिष्य है। शासायन सूत्र इससे कुछ प्राचीन प्रतीत होते हैं, पन्द्रहवें और सोल- इवें अध्यायों में तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि वह स्थल स्पष्ट ब्राह्मण ढंग के बने हुए हैं और सतरहवें और अठारहवें अध्याय पीछेके प्रतीत होते हैं। श्राश्वलायन सूत्र और ऐतरेय ब्राह्मण दोनों ही पूर्व भारत की रचना प्रतीत होते हैं, इसके विरुद्ध शाशायनसूत्र और उसका ब्राह्मण उत्तरी गुजरात के प्रतीत होते हैं, दोनों में भी यज्ञों का क्रम प्रायः वही है, यद्यपि लगभग सभी यज्ञ राजालों के लिये हैं, उन यज्ञों के नाम यह वाजपेय (ऐश्वर्य पाने का यज्ञ),राजसूय (महाराज पद पाने का यज्ञ) अश्वमेध (सम्राट् पद पाने का यज्ञ), पुरुषमेध, और सर्वमेध, शासायन ने इन यज्ञों का विस्तृत वर्णन किया है। सामवेद के अभी तक चार श्रौतसूत्र मिले हैं-जिनमें से एक मशक का, दूसरा लाट्यायन का, तीसरा द्राह्यायन का और चौथा जैमिनीय का। मशकसूत्र में ग्यारह प्रपाठक हैं, जिनमें से प्रथम पाँच में एकाह यज्ञ एक दिन में समाप्त होनेवाला यज्ञ), दूसरे चार में श्रहीन यज्ञ (कई