९ वां अध्याय कल्पसूत्र इनमें से सबसे प्राचीन मूत्र ग्रन्थ वही हैं जो अपने विषय में ब्राह्मण और धारण्यकों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं। ऐतरेय प्रारण्यक में ऐसे बहुत से अंश है, जो सूत्र के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं और जिनका रचयिता श्राश्वलायन और शौनक को माना जाता है। ब्राह्मणों के विषय का सीधा सम्बन्ध कल्प से है, अत्त. ऋषियों का ध्यान सबसे प्रथम इसी विषय को पूर्ण करने को ओर गया। उन्होंने इस विषय के भनेक अन्ध बनाकर इसका नाम कल्पसूत्र रखा। कल्पसूत्र के तीन विभाग है-- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र थौर धर्मसून। श्रौतयज्ञों का वर्णन करनेवाले अन्य श्रौतसूत्र कहलाते हैं, गृहत्य सम्बन्धी संस्कारों और हतियो का वर्णन करनेवाले ग्रन्थ महमूत्र कहलाते हैं, और धर्म के नियमों का वर्णन करनेवाले अन्य धर्मसूत्र कहे जाने हैं। इसी विषय से सम्बन्धित एक और प्रकार का साहित्य है उसको शुल्बसूत्र कहते हैं, उनमें यज्ञशाला धादि बनाने के नियम है। धौतसूत्र-सबसे प्राचीन श्रौतसूत्रों का रचना काल मसीह से पूर्व ५०० से ५०० वर्ष है। ऋग्वेद सम्बन्धी अभी तक दो ही श्रौतसूत्रों का पता लगा है--एक श्रावजीयन का दूसरा शालग्यन का । आश्वलायन श्रौतसूत्र में १२ अध्याय हैं और शाढायन में १८ अध्याय है, पहिले का सम्बन्ध ऐतरेय बाला से घऔर दूसरे का शाजायन पाहाण में है। वैवर साहिय की सम्मति में
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