पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/१७५

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नवा अध्याय ] सौत्रामणि यज्ञ का और बीसवें में अश्वमेव यज्ञ का घोर इक्कीसव में पुरुषमेध, सर्व मेध और पितृमेध यज्ञों का वर्णन है, पच्चीसवें में प्राय- रिचत का और छब्बीसवें में प्रबार्य यज्ञ का वर्णन है, वेबर साहिब ने वैजबाद श्रीतसूत्र को भी शुक्ल यजुर्वेद का ही माना हैं । कृष्ल यजुर्वेद से संबंध रखनेवाले कम से कम दे श्रीन पत्र सुर- क्षित है, किंतु उनमें से अभीतक केवल दो ही पा सके हैं, श्रापस्तय और हिरण्यकेशी ने पूरे कल्पसूत्र लिन्ने हैं, जिनमें धापस्तव के तीस अध्यायों में से चौबीस में और हिरण्यकेशी के उनतीस अध्यायों में से अठारह अध्यायों में इनके श्रीतसूत्र हैं, बौधायन और भारद्वाज के सूत्र अभीतक अप्रकाशित ही है, सुना है भारद्वाज गृह्यसूत्र हालेंट में किसी महिला ने संपादन करके प्रकाशित कराया है। बाधूल और वैखानस के श्रौतसूत्र भी तैत्तिरीय संहिता से ही संबंध रखते हैं, बौधायन के सब से प्राचीन होने में कुछ भी सन्देह नहीं किया जा सकता, उसके बाद क्रम से भारद्वाज, पापस्तंब, और हिस्ययकेशी हुए हैं। मैत्रायणी संहिता से मानव श्रौतसूत्र का संबंध है, संभवतः इसी मानव शाखा के धर्मसूत्र से मनुस्मृति बनी है। अथर्ववेद का श्रौतसूत्र वैतानसूत्र है । वैतान नाम संभवतः अपने प्रथम शब्द वैतान के कारण ही पड़ गया है, यह गोपथ बाह्मण से संबंध रखता है यद्यपि यह कात्यायन के धौतसूत्र का अनुकरण करता है यद्यपि श्रौतसूत्रों से ही यज्ञ का वास्तविक स्वरूप समझा जा सकता है किंतु सब ग्रन्थों में सबसे अधिक रूक्ष विषय इन्हीं का है, इन यज्ञों में यजमान और पुरोहित दो मुख्य समुदाय थे । यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण पुरोहित होते थे, जिनकी संख्या एक से सोलह तक होती थी, क्रिया में यलमान बहुत कम भाग लेता था । वेदी के तीनों भोर की तीनों अग्नियों का विशेष कार्य रहता था, सब से प्रथम अग्न्याधान किया नाता था और फिर अग्नि को समिधाथों से जलाये रखा जाता था । 1