१८६ [ वेद और उनका साहित्य . - रहने दिये थे । दान का महात्म्य बहुत बड़ा बढ़ा था और पि या ब्राह्मण को दान देने में बर्बाद होने पर भी लोग अपनी शेखी समझते थे । इन सबका परिणाम यह हुया कि यज्ञ कराने वाले श्रीर दान लेने- वाले वाहाणों का समुदाय दिन-दिन बढ़ता गयो । बड़ी बडी भाजीविका के धन्धों का सदा प्रचार वहा करता है। यज्ञ कराने का पेशा बामणों के लिये सबसे मशर पेशा बन गया-बड़े-बड़े प्रतापी राजा-मीर गाय की तरह भाज्ञा मानते, सर्वस्व दान देते, और ईश्वर की तरह पूजते थे। बस यज्ञ का महान्य बढ़ा । पर जिस तरह एक कम्पनी के सफलता प्राप्त करते ही सैकड़ों नकली कम्पनियाँ खुल जाती है - वही दशा यज्ञों की हुई । जहाँ सानाज्य कामना से बड़े बड़े यज्ञ होते थे, वहाँ सदेह मुक्ति, सर्पनाश, शत्रुनाश, पुत्रोपादन, वर्षा, रोगनारा यादि दुनिया भर के प्रत्येक कामों के लिये पज्ञ होने लगे। माहाण महाशयों ने यज्ञ को कामधेनु बना दिया । अच्छी दक्षिणा मिलने पर यज्ञ द्वारा प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म कराये जा सकते थे । मेघनाद के और रावण के प्रतिहिंसा मूलक यज्ञ-जनमेजय का मर्पयज्ञ-विशंकु का गज्ञ । ये खत इसी प्रकार के यज्ञ थे धीरे-धीरे इन यज्ञों में पशुबध का प्रसंग चला, और वेदों का संहिता भाग जब इन सब अल जलूल कृत्यों के लिये यथेष्ठ नहीं प्रमाणित हुधा तब इन यज्ञ पुरोहितों ने वेदों के ब्राह्मण भागों का निर्माण कर लिया। इस मबका यह परिणाम हुना कि पवित्र वेदों का ज्ञान, जो मनुष्य की थारमा को सत्य मार्ग दिखाता था लुप्त हो गया। लोगों ने वेदों का मन्त्रार्थ मानना छोड़ दिया । केवल मन्त्रों को कण्ट रखना, मन्त्रों में शक्ति और चमकार समझना, मन्त्रों का पाठ करके यज्ञ का विधि विधान करा देना- यही कर्मकाण्ड प्रबल हो गया । ज्ञान माल करके मुक्ति का मार्ग ढूँढने की अपेक्षा कर्म काग द्वारा मुक्ति पाने की सरत चेश लोग करने बगे। क्योकि इस मार्ग में धन दचिणा खा
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