नवा अध्याय ] । करने से ही अमीरों और राजायों को मुक्ति मोल मिलने लगी-ज्ञान- काण्ड में तो योग के अष्टाङ्ग का अभ्यास करना पड़ता था। जिन दिनों ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई उन दिनों यज्ञों के महात्म्य का बड़ा भारी जोर था । फिर भी अनेक ऋपि और मनस्वी इस पाखण्ड और हिंसा के अनाचार से अत्यन्त ही नाराज थे । और वे विरोध भी करते थे। और एक सम्प्रदाय था जो यज्ञ-कर्म से श्रद्धा रहित हो गया था। सुण्डेकोपनिषद ~२०० में कहा गया है। प्लवाटते अढ़ा यज्ञ रूपा घटादशोक्तमवयंव येयु कर्म । एतळे यो येऽभिनन्दन्ति मूदा जरा मृत्यु पुनरेवापियान्ति जिनमें निकृष्ट कर्म कहे गये हैं- अष्टादश जनयुक्त (१६ ऋस्विक् , १ यजमान १ यजमान परिन) यज्ञरूप प्लव समूह शिथिल हैं इनको कल्याणकर समझकर इनका अभिनन्दन करते हैं-वे पुनरि जरा मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार यज्ञ की निंदा सूचक अन्य भी श्रुतियाँ पाई जाती है। इन थोथे प्राडम्बर मय कर्मकारियों की अवहेलना ऋग्वेद में देखी जाती है। (१०-८२.७), न तं विदाय य इमा जनान धन्यद युष्माकमन्तरं वभूव नीहारेण प्रावृत जलप्या श्रसुतृप उक्ध प्राकृतचरन्ति । भर्थात्--ये उस सृष्टिकर्ता को नही जानते, तुमसे इनमें भन्तर है नीहार द्वारा ये श्राच्छान्न हैं, केवल उच्चारण करके ही तृप्त होकर विचरण जो मूह करते हैं।
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