नवा अध्याय] १८९ जिस यजुवेद में यज्ञों की परिपाटी का विस्तृत उल्लेख है, बश्कि यों कहना चाहिए कि यजुर्वेद का नामकरण और प्रथक्करण हो यज्ञों के लिए हुआ है-उसमें समाजशास्त्र का बड़ा हो गहन वर्णन है-जैसा पीछे बताया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि यजुर्वेद के कान में समाज बहुत ही सुगठित हो गया था-नगर बस गये थे-और वों का संग- ठन हो रहा था। खासकर ब्राह्मण यौर क्षत्रिय ये दो वर्ण बड़ी तेजी से संगठित हो रहे थे। ऋग्वेद के सूक्त और यजुर्वेद तथा उसके शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों को गम्भीरतापूर्वक मनन करने से पता चलता है कि यजुर्वेद के काल में आर्य जीवन में से वह सादगी और पवित्रता नष्ट हो गयी थी और उन सरल सूक्तों का अर्थ और उद्देश्य लोग भूल गये थे और थव का मुख्यधर्म अग्निहोत्र के प्रातः सायंकाल के साधारण नित्य कर्म से लेकर बड़े-बड़े विधान के राजसूय यज्ञों और अश्वमेध यज्ञों तक जो कई- कई वर्षों में समाप्त होते थे बन गया था। यज्ञों के नियम, छोटी-छोटी बातों का गुरुत्व, उद्देश्य थोर तुच्छ रीतियों के नियम, येही अब लोगों के धार्मिक हृदयों में भरे थे ! येही थोथे विचार अब राजाओं और राज- गुरुत्रों के विचार के विषय थे। और इन्हीं का ब्राह्मणे की अनथक गाथाओं में उल्लेख है। यह पीछे बताया गया है कि ऋग्वेद में केवल पंजाब का जिक्र है। परंतु ब्राह्मणों में अाधुनिक दिल्ली के आसपास के देश में प्रबल कुरुओं का-भाजकल के उत्तरी प्रांत में विदेहों का, श्रवध में कौशलों का और बनारस के निकट काशियों का उल्लेख वारम्बार मिलता है। वास्तव में देखा जाय तो इन्हीं लोगों ने यज्ञ के श्राडम्बरों और पाखंडों को इतना बढ़ाया था इनमें जनक, अनातशत्रु, जन्मेजय और परीक्षित की भांति प्रताप और विद्वान् राजा थे । जहाँ ऋग्वेद में सुदास राना का जिक्र श्राता है-वहीं ब्राह्मणों में हमें इन्हीं राजाओं का बारम्बार हाल मिलता .
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