१८८ [वेद और उनका साहित्य प्रति । सारय दर्शनकार महर्षि कपिल ने तीन उक्तियों द्वारा इस कर्म- पापण्ड का विरोध किया । और केवल ज्ञान को मुक्त का मार्ग बताया। कपिल ने वेदों ही के आधार पर ज्ञान-काण्ड को सिद्ध किया है। गीता मे (२४॥४३॥४५) मैं इसी कर्म-काइ को लक्ष्य करके वेदों की निन्दा की गयी है। यामिमा पुष्पिता वाचं प्रपदन्स्यविपश्चितः । वेदवाद रताः पाथ, नान्य दस्तीति वादिनः ।। प्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवाजुन । करमात्मानः स्वर्ग परा जन्म कर्म फल प्रदाम् । क्रियाविशेषाहुली भौगैरवाति हे पार्थ! वेदों के मन्त्र पाठ में भूले हुए और यह कहनेवाले मूद व्यक्ति कि इसके मिशन और कुछ नहीं है, बढ़ा कर ऐसा कहते हैं कि तरह-तरह के यज्ञ थादि कर्म करने से फिर जल र पी फल और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इस लिए हे थर्जुन ! वेदों में गुण्य की बातें भरी पड़ी है। तुम गुणातीत हो जायो । श्रीमदभागवत् में हिमावर्जित कर्मविधि को सारिखको कहा है- द्रव्य यज्ञ भक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि विम्पति । एष मा करुणोहन्या दतक्षोह्य सुतृप ध्रुवम । यज्ञों का और उसकी पद्धतियों का ऋग्वेद में बहुत ही कम धस्पष्ट जिक्र है । यज्ञों का जोर यजुर्वेद के हुधा । ऋग्र की रचना के प्रारम्भिक दिनों में भारतवर्ष में बस्ती बहुत ही कम थी, पीले कह- लाया है कि ऋग्वेद के सूत्रों में केवल नाब का ही उल्लेख है। उसके पागे के भारतवर्ष का कुछ भी समाचार नहीं है । उसमें सब युद्ध, AIRT जिक संस्कारों और यज्ञों के स्थान केवल सिंध नदी और सरस्वती के तट कान्त है।
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