पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/२

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प्रवचन

वेद के प्रति मैं अपने को अधिकारहीन और अज्ञानो समझता हूँ। इसलिए इस छोटोसी पुस्तक में मैंने यथा संभव कोई ऐसी बात नहीं कही है जो मेरी अपनी निजू सम्मति या मत की द्योतक हो, मैंने केवल पौर्वात्य और पाश्चात्य वेद पंडितों का मत-उनका थल्पवाद और विचार शैली की बहुत स्थूल रूप रेखा ही यहाँ दी है। इससे मेरा उद्देश्य केवल इतना ही है, ललावकि वेद प्रेमियों को, जो सामवेद का नाम ही जानते हैं वेद के संबंध में और उनके प्रति संसार के वेदज्ञ पंडितों के मतों के संबंध में कुछ धुन्धली-सी विचार रेखा उत्पन्न हो जाय । मेरा अपना यह मत श्रव बहुत प्रसिद्ध हो गया है कि मैं धर्म को और धार्मिक भावना से संसार में श्रादर पाई पुस्तकों को तिरस्कार एवं संदेह की दृष्टि से देखता हूँ । जगत्पूज्य वेद भी मेरी इस कुत्सित भावना से बचे नहीं । परन्तु मैं इसमें कर भी क्या सकता था, मैं तो शाँखें खोल कर सदा ही देखता रहा हूँ कि धर्म और उसके साहित्य ने सहखों वर्षों से मनुष्य के मस्तिष्क को गुलाम बना दिया है । और वह स्वतन्त्रता से उनके विपय में नहीं सोच सकता। मैं वेदों को धर्मग्रन्थ करके नहीं, आर्यों का, बल्कि कहना चाहिए, मनुष्य के विकास का सर्व प्राचीन उद्गार मानता हूँ। मैं उसमें वे सब कोमल भावनापूर्ण रस-स्रोत जो हृदय को विभोर कर देते हैं देख पाता हूँ। साथ ही वे मूल विज्ञान भी जिन्हें लाखों वर्ष तक मनन और धनु- भव करके मनुष्य का मस्तिष्क बहुदी हो गया है, वेदों के प्रसाद स्व-