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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/३

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[२] रूप ज्ञानता हूँ। मैं वेदों को ईश्वर कृत मानने से इन्कार करता हूँ। और बंद के किपी ग्रन्थ में कोई श्रमोध शक्ति यो चमत्कार है जिसके बाप या अनुष्ठान से कुछ ग्वाम प्रभाव हो सकता है, यह भी नहीं मानता। मैं वेद मन्त्र पढ़कर भॉति-भाँति के थाइम्वरयुक्त यज्ञ करने को रीतियों को भी, जिसने शताब्दियों तक बड़े बड़े सम्राटी को बेकूफ बनाया, और मनुष्य जाति के लिए अनावश्यक ब्राह्मणों की जाति बनायी-भण्ड पाखंड समझता हूँ। मुझे बहुत दु.ख है कि भार्य समाज भी चेदों के प्रति एक दर्जे तक अंध विश्वास में है। यदि दयानन्द कुछ दिन और मनन करते तो कदा- चित् उस थविश्वास के मूल का भी नाश कर देते । वेदों के मम्मन्ध में दो थापत्तिजनक विचार-को युग कर्म की प्रगति के विपरीत एव बुद्धि- वाद से ग्राहक हैं आर्य समाज में सदि के तौर पर स्वीकृत हैं। एक यह कि वेद ईश्वर कृत है । दूसरे यज्ञ धर्म कृत्य है। पहली बाल को थार्य समाज के बहुतेरे विद्वान दबी जबान से कहते हैं । नथा संदिग्ध भाव रखते हैं । पर खुल कर विरोध नही कर सकने, परन्तु दूसरे विषय में शार्य समाज यद्यपि उन पाखरपूर्ण यज्ञों का समर्थक नहीं जैसे बाह्मण काल से बुद्ध के जन्म कोल तक प्रचलित थे । वे हवन चौर नित्य-कर्म की भाँति उसे करते हैं। फिर भी हमारे पास इस बात के प्रमाण है कि बहुत थार्य समाजी लोगों ने १०.३० हजार रु लगाकर यज्ञ किये हैं, और उनमें यह विश्वास रहा है कि यज्ञों का थाध्यामिक प्रभाव होता है। जो हो, मेरी तो यही एकान्त कामना है कि इस छोटी-सी पुस्तक को पढ़कर जन साधारण-~-पास कर शिक्षित युवक गण वेदों के विषय मैं कुछ धारणा बना सकें। और वेद साहित्य के प्रति उनका कुछ परि- चय हो जाय। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि कुछ मित्र मेरी अच्छी तरह । छीना- लेदर करेंगे । प्रार्थ समाज के बंधु भी मुझे क्षमा न करेंगे। सनातन